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Tuesday, January 7, 2014

गणित क्षेत्र में हमारे ऋषियों का योगदान


Photo: ^ गणित क्षेत्र में हमारे ऋषियों का  योगदान

गणित वेदांग साहित्य का मुख्य क्षेत्र था और इस में अंक गणित, बीज गणित, रेखागणित, तथा खगोल शास्त्र शामिल थे। वैदिक काल से ही भारत गणित तथा खगोल क्षेत्र में विश्व के अन्य देशों से बहुत आगे था। भारतीयों के लिये गौरव की बात है कि भारत की ऐक महिला शकुन्तला देवी मौखिक ही जटिल गणनाओं को क्मप्यूटरों से भी तीव्र गति से हल कर के वैदिक गणित का कमाल विश्व भर के गणितज्ञ्यों के सामने आज भी प्रत्यक्ष कर दिखाती हैं।

समझने की दृष्टि से गणित ने भौतिक यथार्थ तथा अध्यात्मिक ज्ञान के मध्य में सेतु का कार्य किया है। वैदिक गणित पद्य में संकलित है जो कि पाश्चात्य गणित से भिन्न रूप में है। यह सूक्षम तथा सक्षम है। यूनानी गणित की अपेक्षा वैदिक गणित के सूत्र सरल और स्पष्ट हैं। आर्य प्रारम्भ से ही प्रत्येक कार्य करने से पूर्व उचित समय निर्धारित करने के लिये नक्षत्रों की चाल तथा दशा के प्रति सजग रहे हैं। आर्य 1012 तक गिन सकते थे जब कि यूनानी केवल 104 तक और रोमन 108 तक ही गिन सकते थे। 

प्राचीन गणित साहित्य

भारत के गणितिज्ञ्यों ने अपनी पद्धति पद्य में अपनायी थी तथा उसे कलात्मिक छवि प्रदान की थी जो उन की विश्षेता थी। गणित सम्बन्धित सब से प्राचीन साहित्य ‘बकशाली हस्त-लेख’ है जो 1881 ईसवी में तक्षशिला के समीप बकशाली नामक गाँव में पाये गये थे। अन्य प्राचीन कृति आचार्य महावीर लिखित गणितसार संगृहम है जिन का जीवन काल लग भग ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के मध्य का है। अक्षर-लक्षण-गणित-शास्त्र में गणित, 84 प्रमेयों (थियोरम्स) तथा पद्धतियों का उल्लेख है।

अंकों का मूल्यांकन

एक से ले कर 9 तक के अंक तथा – शून्य का अंक – भारत की ओर से गणित और विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोपरि योगदान है।भारतीय गणितिज्ञ्यों ने अंकों को केवल गिनती करने के लिये उन के आकार को ही नहीं समझा, अपितु उन्हें गुणवाचक और भाव-वाचक संज्ञा के रूप में भी जोडा। रोमन अंकों की तुलना में भारतीयों ने अंकों को चिन्ह के साथ साथ ‘स्थान’ को भी महत्व प्रदान किया। पहले, दूसरे, तीसरे और इसी तरह आगे सभी स्थानों पर लिखे गये अंकों का अपना अपना महत्व है।

अगर रोमन पद्धति के अनुसार किसी को तीन हज़ार तीन सौ तैंतीस लिखना हो तो वह लिखें गे – MMMCCCXXXIII जबकि भारतीय पद्धति के अनुसार सरलता से आप 3333 लिख सकते हैं। समस्या और भी जटिल बन जाये गी यदि रोमन पद्धति के अंकों को जमा, घटाना, गुणा या भाग देना पड जाये तो। यदि 3333 को दस से गुणा करना है तो दाहिनी ओर केवल ऐक शून्य लगा कर 33330 कर के ही उत्तर मिल जाये गा, लेकिन रोमन पद्धति में इस आसान काम को करवाना भी कठिन है।

विश्व भर में बुद्धिजीवी चिन्हों के माध्यम से गिनती करने में जूझते रहे परन्तु सफलता तभी हाथ लगी जब भारतीयों दूारा अकों के अविष्कार करने के बाद उन को  स्थान के मुताबिक प्रयोगात्मिक कर के साकार किया गया। यदि यह घटना घटित नहीं होती तो गणित और कम्पयूटर के साथ जुडी हुई कोई भी प्रगति नहीं होनी थी। भारत के गणितिज्ञों नें अंकों के ‘स्थान’ अनुसार मूल्याँकन कर के समस्या का समाघान किया। संख्या में दाहिनी ओर का प्रथम अंक 1 के गुणनफल को, दूसरा अंक 10 के गुणनफल को, और तीसरा अंक 100 के गुणनफल को व्यक्त करता है। इसी क्रम से भारतीय गणितिज्ञ्यों ने असंख्य अंकों तक का गुणनफल निकालना सरल कर दिया। प्रत्येक अंक को ऐक क्रम बाँये खिसका कर दस गुणा मूल्य प्रदान कर दिखाया। इसी पद्धति को जब कम्पयूटरों में इस्तेमाल किया गया तो बाईनेरी के दो अंको को आधार माना गया जिन को ऐक स्थान बाँये खिसकाने से अंकों का योगफल दोगुणा हो जाता है। प्रसिद्ध मोरोकन-फराँसिसी गणितिज्ञ्य जार्ज इफरा के कथनानुसार समस्त विश्व में भारतीय अंक गुणवत्ता में अति सक्षम हैं।

शून्य की उपलब्द्धि

भारतीय गणितिज्ञ्यों की अति महत्वशाली उपलब्द्धि ‘शून्य’ का अविष्कार थी जिस के सहारे आज का विज्ञान आकाश की ऊचाईयों को छूने को तत्पर है। सर्व प्रथम शून्य अंक के प्रयोग का उल्लेख ईसा से 200 वर्ष पूर्व के धार्मिक ग्रँथों सें मिलता है। शून्य का अर्थ है – ‘कुछ नहीं’। पहले शून्य अंक ऐक बिन्दी के चिन्ह से दर्शाया जाता था। तदन्तर उस का आकार ऐक छोटे वृत की शक्ल का हो गया। इसी रूप में शून्य को अन्य अंकों की तरह से ऐक ‘अंक के तौर पर’ स्वीकार कर लिया गया।

ईशवासोपनिष्द उपनिष्द में शून्य की सुन्दर परिभाषा इस प्रकार की गयी हैः-

           ॐपूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

मंत्र कहता है, यह भी पूर्ण है, वह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है, तो भी वह पूर्ण है और अंत में पूर्ण में लीन होने पर भी अवशिष्ट पूर्ण ही रहता है। जो वैशिष्ट्य पूर्ण के वर्णन में है वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है। शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने पर शून्य ही रहता है। यही बात अनन्त की भी है कि “पूर्ण (अनादि ब्रह्म) से यदि पूर्ण को निकाल लिया जाये तो भी पूर्ण ही शेष बचे गा ”। यह परिभाषा पाश्चात्य जगत के गणितिज्ञ्य केन्टर के इनफिनिटी सिद्धान्त की परिभाषा की अग्रज है।

भारतीयों ने शून्य अंक का केवल अविष्कार ही नहीं किया अपितु उस के आधार पर पूर्ण पद्धति का निर्माण किया। शून्य के क्रियात्मिक प्रयोग को ब्रह्मगुप्त नें आज से 1500 वर्ष पूर्व साकार किया था। शून्य का ऐक अंक के तोर पर इस्तेमाल, शून्य का नकारात्मिक अस्तित्व, तथा अन्य अंकों की पंक्ति में स्थान और उस का मूल्यांकन – यह तीनों अवस्थायें शून्य के अविष्कार तथा प्रयोग की महत्ता को दर्शाती हैं। ‘दशमल्व पद्धति’ भी उसी श्रंखला की ऐक कडी थी।

दशमलव पद्धति

पाश्चात्य देशों को भारत की दशामलव उपलब्धी का आभारी होना पडे गा जो वास्तव में किसी ‘अनामिक भारतीय’ की खोज है। यह उपलब्धी नौ अंकों के पश्चात शून्य तथा दशामलव की है। दशमलव के बिना आधुनिक युग की सभी प्रगतियाँ निर्रथक हो जातीं जिन में कम्पयूटर्स भी शामिल हैं।

    पाँचवी शताब्दी में आर्य भट्ट ने दशमल्व पद्धति का प्रयोग किया था।
    उस के पश्चात ब्रह्मगुप्त ने दशमलव के प्रयोग सम्बन्धी नियम बनाये जो आज भी मान्य हैं।

गणित क्षेत्र का विस्तार विकास

अरब वासियों ने भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे ’ (भारत से) कह कर अपनाया और इस ज्ञान को अफरीका तथा योरूप में ले कर गये। किन्तु योरूप वासियों ने इन अंकों को भ्रम के आधार पर अरेबिक संज्ञा दी जो अशोक स्तम्भों पर लिखित थे। भारतीय पद्धति की तुलना में रोमन अंक पद्धति जटिल और सीमित होने के कारण विज्ञान की जरूरतों में असफल रही है।

खगोल जानकारी के लिये भारतीयों ने गणित के क्षेत्र में विस्तार तथा विकास कर के त्रिकोणमिति (ट्रिगनोमेट्री) तथा केलकुलस आदि को भी जन्म दिया। ‘असंख्य’ के जिस चिन्ह (लेमीस्केटस) का प्रयोग अंग्रेज गणितिज्ञ्य जोन वालिस ने 1655 ईस्वी में किया था उसी प्रकार का चिन्ह भारत के पौराणिक साहित्य में ‘अन्नत’ तथा ‘आदिशेष’ के लिये प्रयोग किया जाता है और उस का अर्थ असंख्य तथा अन्नत है । यह चिन्ह धरातल पर ‘8’ के अंक के समान होता है और लेमीस्केटस की तरह है। 

अंक गणित

आर्य भट्ट, ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य नें अंकों के नकारात्मिक स्थान की पद्धति का प्रचलन किया। उन्हों ने आठवीं शताब्दी में 2 का वर्गमूल निकाला और उस का समाधान किया। उन्हों  ने माध्यमिक समीकरणों (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) को भी दूसरे दर्जे तक सुलझाया जो कि योरूप के तत्कालिक गणितिज्ञ्य नहीं जानते थे। उन को यह भेद एक हजार वर्ष पश्चात इयूलर के समय ज्ञात हुआ था। भास्कर ने रेडिकल चिन्ह का प्रयोग भी किया तथा अंक गणित के और  कई चिन्ह बनाये। बौद्धयान कृत सुल्भसूत्र में पायथागोरस की थियोरम का पूर्वाभास मिलता है। उन्हों ‘ल2’ का वर्गमूल भी निकाला था।

भारतीय गणितिज्ञ्य

आर्य भट्ट का जीवन काल 475 – 550 ईस्वी का है तथा वह केरल निवासी थे। उन्हों ने नालन्दा में शिक्षा पाई थी। गणना (केलकूलेशन) विभाग में उन्हों ने खगोल शास्त्र खण्ड में मौलिक खोज की। जीवा (का्र्डस) की लम्बाई निकालने के लिये अर्ध-जीवा का प्रयोग किया जब कि यूनानी गणितिज्ञ्य पूर्ण-जीवा का ही प्रयोग करते थे। आर्य भट्ट ने ‘पाई ’ की माप 3.1416 तक निकाली। वर्गमूल निकालने के मौलिक सिद्धान्त बनाये तथा मध्यवर्ती समीकरण (अर्थमेटिक सीरीज इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अ ज – ब व बराबर ख’ और साईन तालिकाओं (साईन टेबलस) का निर्माण भी किया।

ब्रह्मगुप्त का जीवन काल 598 – 665 ईस्वी का है। उन्हों ने नकारात्मक अंकों तथा शून्य का प्रयोग गणित में किया। उन की कृति ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त है जो कि अन्य प्राचीन कृति ब्रह्मसिद्धान्त का शोधन है। इस ग्रन्थ को कालान्तर अरबी भाषा में ‘सिन्द-हिन्द’ के नाम से ख्याति मिली। ब्रह्मगुप्त ने तीन का सिद्धानत और चतुर्भुजी ऐकालिक समीकरण (क्वार्डिक एण्ड साईमल्टेनियस ईक्वेशनस) को सुलझाने सम्बन्धी नियम बनाये। वह प्रथम गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने गणित तथा अंक गणित का विभागी करण किया तथा दोनो को प्रथक अंग माना। उन्हों ने मध्यवर्ती समीकरण (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अxब=ब2’ को सुलझाया। वह अंक विशलेशण ज्ञान के भी अग्रज थे।

महावीराचार्य ने 850 ईस्वी में गणित-सार सँग्रह लिखा जो विश्व में गणित विषय की प्रथम उपलब्ध पुस्तक है। वह ऐकमात्र भारतीय गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने ग्रहण का प्रथम बार उल्लेख किया है जिसे आयतवृत कहा गया है।

भास्कराचार्य भारत के सर्वाधिक मशहूर गणितिज्ञ्य थे। वह 1114 ईस्वी में बिजडाबिदा (आधुनिक बीजापुर, कर्नाटक) में पैदा हुये थे। उन्हों ने सर्वप्रथम कहा कि “यदि किसी अंक को शून्य से विभाजित किया जाय तो विभाज्य भी शून्य होगा” तथा “असंख्य बार शून्य को जोडने का योगफल शुन्य ही होगा ”। भास्कराचार्य को डिफरेंशियल केलकूलस का जनक कहा जा सकता है तथा रौल्स प्रमेय (थि्योरम) का अग्रज। यह दुर्भाग्य था कि अन्य भारतीय गणितिज्ञ्यों ने इस उपलब्धी के महत्व को नहीं समझा और उस का कोई लाभ नहीं उठाया। पाँच शताब्दी पश्चात न्यूटन तथा लेबनिज ने उन के विचार को विकसित किया।भास्कराचार्य ने 1150 ईसवी में सिद्धान्त-शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की जिस के चार भाग इस प्रकार हैं-

    लीलावती – गणित की लोकप्रिय पुस्तक।
    बीजगणित – इस खण्ड में चक्रावल पद्धति से अंकगणित के समीकरणों (इक्वेशनस) को सुलझाया। छः शताब्दी पश्चात योरूप के गलोईस, इयुलर, लगारंगे इत्यादि पाश्चात्य गणितिज्ञ्यों ने भास्कराचार्य की पद्धति का पुनार्वलोकन कर के विपरीत चक्रवाल (इनवर्स साइकलिक) पद्धति का निर्माण किया।
    गोलाध्याय – खगौलिक गोलाकार (स्फीयर सलेस्चियल गलोब) का वर्णन किया है।
    ग्रह गणित – खगोल शास्त्र के ग्रहों का ब्योरा।

अंक गणित

भारतीय आधुनिक गणित, अंक गणित और रेखा गणित के जनक थे। योरूपवासियों को अंकगणित अरब वासियों की मार्फत मिला जिसे वह ‘अलजबर’ (अडजस्टमेन्ट) कहते थे। यूनानी गणितिज्ञ्य  106 तक के अंकों को गिन सकते थे और रोमन 108 तक जब कि ईसा से 5 हजार वर्ष पूर्व भारत के गणितिज्ञ्य  53 की दसगुणा शक्ति तक का गणन कर सकते थे। वर्णाक्षरों, चिन्हों का प्रयोग कर के गणितिज्ञ्य असंख्य गणनाओं को दर्शा सकते थे जो कि आज गणित तथा अंक गणित की आधारशिला हैं। हिन्दू गणितिज्ञ्य असंख्यों को चिन्हों के माध्यम से स्पष्ट करने में अग्रज तथा सक्षम थे।

कल्प-ज्योत्मिती – रेखा गणित

वैदिक काल में पूजा के लिये वेदियाँ तथा बलि स्थल ज्योत्मिती (रेखागणित – ज्योमैट्री) के रेखा चित्रों के आकार के ही बनाये जाते थे। वेदियों की आकर्तियाँ रेखा गणित की गणना के अनुकूल बनतीं थीं तथा उन की दिशायें माप दँण्ड के अनुसार ही निर्माण की जाती थीं। ईंट पत्थर के आकार, माप दण्ड तथा संख्या पूर्व निर्धारित होती थी। आकर्तियों का धरातल इस प्रकार निर्मित किया जाता थी कि उन का आकार बदले बिना उन के क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता था जिस के लिये रेखा गणित के विस्तरित ज्ञान की आवश्यक्ता पडती थी। ऱेखा गणित को ‘कल्प’ कहा जाता था।    

आर्य भट्ट ने त्रिभुज का तथा आयाताकार का क्षेत्रफल निकालने की विधि का अविष्कार किया। उन्हों ने ऐक सूत्र में वृत की परिधि (त्याज्ञ्य) मापने की विधि भी दर्शायी जो चार दशामलव अंकों तक सही है। सुलभ सूत्र में रेखा गणितानुसार वेदियां बनाने का विस्तरित वर्णन है जो आयत, वर्ग, चतुर्भुज, वृत, अण्डाकार (ओवल) आकार की बनायी जा सकतीं थी तथा उन का क्षेत्रफल और आकार वाँच्छित तरीके से अदला बदला जा सकता था।

लगे हाथों महाभारत में दु्र्योद्धन की रेखा गणित सूक्षमता की तारीफ भी करनी चाहिये जब उस नें पाण्डवों को ‘सूई की नोक तले आने वाली भूमि’ देने से भी इनकार कर दिया था। उस का वक्तव्य सूक्षम्ता और स्पष्टता के माप दण्ड को दर्शाता है।

भारतीय गणित के बिना आज की वैज्ञिानिक प्रगति असम्भव थी।

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गणित वेदांग साहित्य का मुख्य क्षेत्र था और इस में अंक गणित, बीज गणित, रेखागणित, तथा खगोल शास्त्र शामिल थे। वैदिक काल से ही भारत गणित तथा खगोल क्षेत्र में विश्व के अन्य देशों से बहुत आगे था। भारतीय...ों के लिये गौरव की बात है कि भारत की ऐक महिला शकुन्तला देवी मौखिक ही जटिल गणनाओं को क्मप्यूटरों से भी तीव्र गति से हल कर के वैदिक गणित का कमाल विश्व भर के गणितज्ञ्यों के सामने आज भी प्रत्यक्ष कर दिखाती हैं।

समझने की दृष्टि से गणित ने भौतिक यथार्थ तथा अध्यात्मिक ज्ञान के मध्य में सेतु का कार्य किया है। वैदिक गणित पद्य में संकलित है जो कि पाश्चात्य गणित से भिन्न रूप में है। यह सूक्षम तथा सक्षम है। यूनानी गणित की अपेक्षा वैदिक गणित के सूत्र सरल और स्पष्ट हैं। आर्य प्रारम्भ से ही प्रत्येक कार्य करने से पूर्व उचित समय निर्धारित करने के लिये नक्षत्रों की चाल तथा दशा के प्रति सजग रहे हैं। आर्य 1012 तक गिन सकते थे जब कि यूनानी केवल 104 तक और रोमन 108 तक ही गिन सकते थे।

प्राचीन गणित साहित्य

भारत के गणितिज्ञ्यों ने अपनी पद्धति पद्य में अपनायी थी तथा उसे कलात्मिक छवि प्रदान की थी जो उन की विश्षेता थी। गणित सम्बन्धित सब से प्राचीन साहित्य ‘बकशाली हस्त-लेख’ है जो 1881 ईसवी में तक्षशिला के समीप बकशाली नामक गाँव में पाये गये थे। अन्य प्राचीन कृति आचार्य महावीर लिखित गणितसार संगृहम है जिन का जीवन काल लग भग ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के मध्य का है। अक्षर-लक्षण-गणित-शास्त्र में गणित, 84 प्रमेयों (थियोरम्स) तथा पद्धतियों का उल्लेख है।

अंकों का मूल्यांकन

एक से ले कर 9 तक के अंक तथा – शून्य का अंक – भारत की ओर से गणित और विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोपरि योगदान है।भारतीय गणितिज्ञ्यों ने अंकों को केवल गिनती करने के लिये उन के आकार को ही नहीं समझा, अपितु उन्हें गुणवाचक और भाव-वाचक संज्ञा के रूप में भी जोडा। रोमन अंकों की तुलना में भारतीयों ने अंकों को चिन्ह के साथ साथ ‘स्थान’ को भी महत्व प्रदान किया। पहले, दूसरे, तीसरे और इसी तरह आगे सभी स्थानों पर लिखे गये अंकों का अपना अपना महत्व है।

अगर रोमन पद्धति के अनुसार किसी को तीन हज़ार तीन सौ तैंतीस लिखना हो तो वह लिखें गे – MMMCCCXXXIII जबकि भारतीय पद्धति के अनुसार सरलता से आप 3333 लिख सकते हैं। समस्या और भी जटिल बन जाये गी यदि रोमन पद्धति के अंकों को जमा, घटाना, गुणा या भाग देना पड जाये तो। यदि 3333 को दस से गुणा करना है तो दाहिनी ओर केवल ऐक शून्य लगा कर 33330 कर के ही उत्तर मिल जाये गा, लेकिन रोमन पद्धति में इस आसान काम को करवाना भी कठिन है।

विश्व भर में बुद्धिजीवी चिन्हों के माध्यम से गिनती करने में जूझते रहे परन्तु सफलता तभी हाथ लगी जब भारतीयों दूारा अकों के अविष्कार करने के बाद उन को स्थान के मुताबिक प्रयोगात्मिक कर के साकार किया गया। यदि यह घटना घटित नहीं होती तो गणित और कम्पयूटर के साथ जुडी हुई कोई भी प्रगति नहीं होनी थी। भारत के गणितिज्ञों नें अंकों के ‘स्थान’ अनुसार मूल्याँकन कर के समस्या का समाघान किया। संख्या में दाहिनी ओर का प्रथम अंक 1 के गुणनफल को, दूसरा अंक 10 के गुणनफल को, और तीसरा अंक 100 के गुणनफल को व्यक्त करता है। इसी क्रम से भारतीय गणितिज्ञ्यों ने असंख्य अंकों तक का गुणनफल निकालना सरल कर दिया। प्रत्येक अंक को ऐक क्रम बाँये खिसका कर दस गुणा मूल्य प्रदान कर दिखाया। इसी पद्धति को जब कम्पयूटरों में इस्तेमाल किया गया तो बाईनेरी के दो अंको को आधार माना गया जिन को ऐक स्थान बाँये खिसकाने से अंकों का योगफल दोगुणा हो जाता है। प्रसिद्ध मोरोकन-फराँसिसी गणितिज्ञ्य जार्ज इफरा के कथनानुसार समस्त विश्व में भारतीय अंक गुणवत्ता में अति सक्षम हैं।

शून्य की उपलब्द्धि

भारतीय गणितिज्ञ्यों की अति महत्वशाली उपलब्द्धि ‘शून्य’ का अविष्कार थी जिस के सहारे आज का विज्ञान आकाश की ऊचाईयों को छूने को तत्पर है। सर्व प्रथम शून्य अंक के प्रयोग का उल्लेख ईसा से 200 वर्ष पूर्व के धार्मिक ग्रँथों सें मिलता है। शून्य का अर्थ है – ‘कुछ नहीं’। पहले शून्य अंक ऐक बिन्दी के चिन्ह से दर्शाया जाता था। तदन्तर उस का आकार ऐक छोटे वृत की शक्ल का हो गया। इसी रूप में शून्य को अन्य अंकों की तरह से ऐक ‘अंक के तौर पर’ स्वीकार कर लिया गया।

ईशवासोपनिष्द उपनिष्द में शून्य की सुन्दर परिभाषा इस प्रकार की गयी हैः-

ॐपूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

मंत्र कहता है, यह भी पूर्ण है, वह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है, तो भी वह पूर्ण है और अंत में पूर्ण में लीन होने पर भी अवशिष्ट पूर्ण ही रहता है। जो वैशिष्ट्य पूर्ण के वर्णन में है वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है। शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने पर शून्य ही रहता है। यही बात अनन्त की भी है कि “पूर्ण (अनादि ब्रह्म) से यदि पूर्ण को निकाल लिया जाये तो भी पूर्ण ही शेष बचे गा ”। यह परिभाषा पाश्चात्य जगत के गणितिज्ञ्य केन्टर के इनफिनिटी सिद्धान्त की परिभाषा की अग्रज है।

भारतीयों ने शून्य अंक का केवल अविष्कार ही नहीं किया अपितु उस के आधार पर पूर्ण पद्धति का निर्माण किया। शून्य के क्रियात्मिक प्रयोग को ब्रह्मगुप्त नें आज से 1500 वर्ष पूर्व साकार किया था। शून्य का ऐक अंक के तोर पर इस्तेमाल, शून्य का नकारात्मिक अस्तित्व, तथा अन्य अंकों की पंक्ति में स्थान और उस का मूल्यांकन – यह तीनों अवस्थायें शून्य के अविष्कार तथा प्रयोग की महत्ता को दर्शाती हैं। ‘दशमल्व पद्धति’ भी उसी श्रंखला की ऐक कडी थी।

दशमलव पद्धति

पाश्चात्य देशों को भारत की दशामलव उपलब्धी का आभारी होना पडे गा जो वास्तव में किसी ‘अनामिक भारतीय’ की खोज है। यह उपलब्धी नौ अंकों के पश्चात शून्य तथा दशामलव की है। दशमलव के बिना आधुनिक युग की सभी प्रगतियाँ निर्रथक हो जातीं जिन में कम्पयूटर्स भी शामिल हैं।

पाँचवी शताब्दी में आर्य भट्ट ने दशमल्व पद्धति का प्रयोग किया था।
उस के पश्चात ब्रह्मगुप्त ने दशमलव के प्रयोग सम्बन्धी नियम बनाये जो आज भी मान्य हैं।

गणित क्षेत्र का विस्तार विकास

अरब वासियों ने भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे ’ (भारत से) कह कर अपनाया और इस ज्ञान को अफरीका तथा योरूप में ले कर गये। किन्तु योरूप वासियों ने इन अंकों को भ्रम के आधार पर अरेबिक संज्ञा दी जो अशोक स्तम्भों पर लिखित थे। भारतीय पद्धति की तुलना में रोमन अंक पद्धति जटिल और सीमित होने के कारण विज्ञान की जरूरतों में असफल रही है।

खगोल जानकारी के लिये भारतीयों ने गणित के क्षेत्र में विस्तार तथा विकास कर के त्रिकोणमिति (ट्रिगनोमेट्री) तथा केलकुलस आदि को भी जन्म दिया। ‘असंख्य’ के जिस चिन्ह (लेमीस्केटस) का प्रयोग अंग्रेज गणितिज्ञ्य जोन वालिस ने 1655 ईस्वी में किया था उसी प्रकार का चिन्ह भारत के पौराणिक साहित्य में ‘अन्नत’ तथा ‘आदिशेष’ के लिये प्रयोग किया जाता है और उस का अर्थ असंख्य तथा अन्नत है । यह चिन्ह धरातल पर ‘8’ के अंक के समान होता है और लेमीस्केटस की तरह है।

अंक गणित

आर्य भट्ट, ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य नें अंकों के नकारात्मिक स्थान की पद्धति का प्रचलन किया। उन्हों ने आठवीं शताब्दी में 2 का वर्गमूल निकाला और उस का समाधान किया। उन्हों ने माध्यमिक समीकरणों (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) को भी दूसरे दर्जे तक सुलझाया जो कि योरूप के तत्कालिक गणितिज्ञ्य नहीं जानते थे। उन को यह भेद एक हजार वर्ष पश्चात इयूलर के समय ज्ञात हुआ था। भास्कर ने रेडिकल चिन्ह का प्रयोग भी किया तथा अंक गणित के और कई चिन्ह बनाये। बौद्धयान कृत सुल्भसूत्र में पायथागोरस की थियोरम का पूर्वाभास मिलता है। उन्हों ‘ल2’ का वर्गमूल भी निकाला था।

भारतीय गणितिज्ञ्य

आर्य भट्ट का जीवन काल 475 – 550 ईस्वी का है तथा वह केरल निवासी थे। उन्हों ने नालन्दा में शिक्षा पाई थी। गणना (केलकूलेशन) विभाग में उन्हों ने खगोल शास्त्र खण्ड में मौलिक खोज की। जीवा (का्र्डस) की लम्बाई निकालने के लिये अर्ध-जीवा का प्रयोग किया जब कि यूनानी गणितिज्ञ्य पूर्ण-जीवा का ही प्रयोग करते थे। आर्य भट्ट ने ‘पाई ’ की माप 3.1416 तक निकाली। वर्गमूल निकालने के मौलिक सिद्धान्त बनाये तथा मध्यवर्ती समीकरण (अर्थमेटिक सीरीज इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अ ज – ब व बराबर ख’ और साईन तालिकाओं (साईन टेबलस) का निर्माण भी किया।

ब्रह्मगुप्त का जीवन काल 598 – 665 ईस्वी का है। उन्हों ने नकारात्मक अंकों तथा शून्य का प्रयोग गणित में किया। उन की कृति ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त है जो कि अन्य प्राचीन कृति ब्रह्मसिद्धान्त का शोधन है। इस ग्रन्थ को कालान्तर अरबी भाषा में ‘सिन्द-हिन्द’ के नाम से ख्याति मिली। ब्रह्मगुप्त ने तीन का सिद्धानत और चतुर्भुजी ऐकालिक समीकरण (क्वार्डिक एण्ड साईमल्टेनियस ईक्वेशनस) को सुलझाने सम्बन्धी नियम बनाये। वह प्रथम गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने गणित तथा अंक गणित का विभागी करण किया तथा दोनो को प्रथक अंग माना। उन्हों ने मध्यवर्ती समीकरण (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अxब=ब2’ को सुलझाया। वह अंक विशलेशण ज्ञान के भी अग्रज थे।

महावीराचार्य ने 850 ईस्वी में गणित-सार सँग्रह लिखा जो विश्व में गणित विषय की प्रथम उपलब्ध पुस्तक है। वह ऐकमात्र भारतीय गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने ग्रहण का प्रथम बार उल्लेख किया है जिसे आयतवृत कहा गया है।

भास्कराचार्य भारत के सर्वाधिक मशहूर गणितिज्ञ्य थे। वह 1114 ईस्वी में बिजडाबिदा (आधुनिक बीजापुर, कर्नाटक) में पैदा हुये थे। उन्हों ने सर्वप्रथम कहा कि “यदि किसी अंक को शून्य से विभाजित किया जाय तो विभाज्य भी शून्य होगा” तथा “असंख्य बार शून्य को जोडने का योगफल शुन्य ही होगा ”। भास्कराचार्य को डिफरेंशियल केलकूलस का जनक कहा जा सकता है तथा रौल्स प्रमेय (थि्योरम) का अग्रज। यह दुर्भाग्य था कि अन्य भारतीय गणितिज्ञ्यों ने इस उपलब्धी के महत्व को नहीं समझा और उस का कोई लाभ नहीं उठाया। पाँच शताब्दी पश्चात न्यूटन तथा लेबनिज ने उन के विचार को विकसित किया।भास्कराचार्य ने 1150 ईसवी में सिद्धान्त-शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की जिस के चार भाग इस प्रकार हैं-

लीलावती – गणित की लोकप्रिय पुस्तक।
बीजगणित – इस खण्ड में चक्रावल पद्धति से अंकगणित के समीकरणों (इक्वेशनस) को सुलझाया। छः शताब्दी पश्चात योरूप के गलोईस, इयुलर, लगारंगे इत्यादि पाश्चात्य गणितिज्ञ्यों ने भास्कराचार्य की पद्धति का पुनार्वलोकन कर के विपरीत चक्रवाल (इनवर्स साइकलिक) पद्धति का निर्माण किया।
गोलाध्याय – खगौलिक गोलाकार (स्फीयर सलेस्चियल गलोब) का वर्णन किया है।
ग्रह गणित – खगोल शास्त्र के ग्रहों का ब्योरा।

अंक गणित

भारतीय आधुनिक गणित, अंक गणित और रेखा गणित के जनक थे। योरूपवासियों को अंकगणित अरब वासियों की मार्फत मिला जिसे वह ‘अलजबर’ (अडजस्टमेन्ट) कहते थे। यूनानी गणितिज्ञ्य 106 तक के अंकों को गिन सकते थे और रोमन 108 तक जब कि ईसा से 5 हजार वर्ष पूर्व भारत के गणितिज्ञ्य 53 की दसगुणा शक्ति तक का गणन कर सकते थे। वर्णाक्षरों, चिन्हों का प्रयोग कर के गणितिज्ञ्य असंख्य गणनाओं को दर्शा सकते थे जो कि आज गणित तथा अंक गणित की आधारशिला हैं। हिन्दू गणितिज्ञ्य असंख्यों को चिन्हों के माध्यम से स्पष्ट करने में अग्रज तथा सक्षम थे।

कल्प-ज्योत्मिती – रेखा गणित

वैदिक काल में पूजा के लिये वेदियाँ तथा बलि स्थल ज्योत्मिती (रेखागणित – ज्योमैट्री) के रेखा चित्रों के आकार के ही बनाये जाते थे। वेदियों की आकर्तियाँ रेखा गणित की गणना के अनुकूल बनतीं थीं तथा उन की दिशायें माप दँण्ड के अनुसार ही निर्माण की जाती थीं। ईंट पत्थर के आकार, माप दण्ड तथा संख्या पूर्व निर्धारित होती थी। आकर्तियों का धरातल इस प्रकार निर्मित किया जाता थी कि उन का आकार बदले बिना उन के क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता था जिस के लिये रेखा गणित के विस्तरित ज्ञान की आवश्यक्ता पडती थी। ऱेखा गणित को ‘कल्प’ कहा जाता था।

आर्य भट्ट ने त्रिभुज का तथा आयाताकार का क्षेत्रफल निकालने की विधि का अविष्कार किया। उन्हों ने ऐक सूत्र में वृत की परिधि (त्याज्ञ्य) मापने की विधि भी दर्शायी जो चार दशामलव अंकों तक सही है। सुलभ सूत्र में रेखा गणितानुसार वेदियां बनाने का विस्तरित वर्णन है जो आयत, वर्ग, चतुर्भुज, वृत, अण्डाकार (ओवल) आकार की बनायी जा सकतीं थी तथा उन का क्षेत्रफल और आकार वाँच्छित तरीके से अदला बदला जा सकता था।

लगे हाथों महाभारत में दु्र्योद्धन की रेखा गणित सूक्षमता की तारीफ भी करनी चाहिये जब उस नें पाण्डवों को ‘सूई की नोक तले आने वाली भूमि’ देने से भी इनकार कर दिया था। उस का वक्तव्य सूक्षम्ता और स्पष्टता के माप दण्ड को दर्शाता है।

भारतीय गणित के बिना आज की वैज्ञिानिक प्रगति असम्भव थी।


 

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