पुनर्जन्म का रहस्य...
जीवन अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है, लेकिन मृत्यु उससे भी बड़ी पहेली है। मृत्यु को लेकर विज्ञान और दर्शन में अनेक प्रश्न है - क्या मृत्यु के बाद मनुष्य पूरा का पूरा समाप्त हो जाता है? या मृत्यु केवल शरीर पर ही घटित होती ह...ै? प्राण या आत्मतत्व मृत्यु के साथ ही मुक्त हो जाता है?
यह आत्मतत्व कहां चला जाता है? अगर कहीं जाता है तो कहीं से आता भी होगा? इससे अलग एक और मौलिक प्रश्न उत्पन्न होता है - क्या आत्मा सदा से है? या आत्मा का भी जन्म होता है? यदि आत्मा का जन्म होता है तो इसका भी अवसान होता है क्या? क्या मनुष्य की आत्मा या प्राण बार-बार जन्म लेता है? पुनर्जन्म का विचार वास्तव में है क्या?
ऐसे अनेक प्रश्न जिज्ञासु चित्त को मथते हैं। विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दुनिया के तमाम देशों में मृत्यु बाद के जीवन पर सोच-विचार हुआ था। लेकिन प्रकृति विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति रहस्यों के साथ ही मनुष्य के अन्तर्जगत पर भी शोध किये थे। इसलिए भारत की अनुभूति ने आत्मा को अमर माना और शरीर को नाशवान।
यम-नचिकेता संवाद-
यह बहस पुरानी है। विश्व स्तर पर इसका विज्ञान सम्मत और निर्णायक समाधान होना शेष है। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही आत्मा का अमरत्व और देहान्तरण तर्क और अनुभूति का विषय रहे हैं।
कठोपनिषद् प्राचीन उपनिषद् है। यहां यम और नचिकेता का प्रश्नोत्तर है। नचिकेता ने अग्नि रहस्य पूछा, यम का उत्तर मिला। वह संतुष्ट हुआ। अंतिम प्रश्न चुनौतीपूर्ण था- 'मृत मनुष्यों के बारे में संशय है कि कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद यह आत्मा शेष रहती है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहती। आप सही बात का उपदेश दें।' (1.1.20)
भारत का उत्तर वैदिक काल रोमांचकारी है। तब नचिकेता जैसे युवा-बालक भी मृत्यु रहस्यों के प्रति जिज्ञासु थे। यम ने पते की बात की 'प्राचीन काल में भी इस विषय पर संदेह रहा है। यह विषय अति सूक्ष्म है- हि एष: धर्म अणु:। तुम कोई दूसरा वर मांगो।
उपनिषद् के रचना काल के पहले से ही यह विषय भारतीयों की जिज्ञासा था। यम के उत्तर में आत्मा की अमरता का उल्लेख है, 'यह आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न किसी से हुआ है। यह किसी कारण नहीं है और न किसी का कार्य। यह शाश्वत है, अजन्मा है।'
अथर्ववेद में इस अजन्मा को 'अग्नि और ज्योति-प्रकाश' बताया गया है -अजो अग्निरजमु ज्योति। (9.5.7) कहते हैं 'हे अज! आप अजन्मा और स्वर्ग रूप हैं-अजो इस्यज स्वर्गो असि। (वही, 15)
पुनर्जन्म और श्रीकृष्ण...
पुनर्जन्म का भारतीय विचार आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पुनर्जन्म से जुड़ी तमाम घटनाएं विश्व स्तर पर अक्सर घटित होती हैं।
श्रीकृष्ण ने गीता (4.1) में कहा कि 'योग का यह ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था, उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था।' अर्जुन ने प्रति प्रश्न किया 'आपका जन्म बाद का है और विवस्वान का बहुत प्राचीन है।' (वही 4) श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन! मेरे तेरे बहुत जन्म हो चुके। मैं जानता हूं तू नहीं जानता।' (वही 5)
पुनर्जन्म बेशक भारतीय अनुभूति है, लेकिन ईसा ने भी श्रीकृष्ण की ही तर्ज पर कहा था 'जब अब्राहम हुआ था मैं उसके भी पहले था।' (जौन, 8.58)
जैसे कृष्ण ने स्वयं को पूर्व हुए लोगों के भी पहले विद्यमान बताया वैसे ही ईसा ने स्वयं को पूर्व हुए अब्राहम के भी पहले विद्यमान बताया।
श्रीकृष्ण ने ज्ञान-संन्यास का मर्म समझाते हुए अध्याय 5(17) में कहा, 'अपनी सम्पूर्ण चेतना को परमसत्ता की ओर लगाने वाले वहां पहुंचते हैं, जहां से यहां लौटना नहीं होता।' ऋग्वेद (9.113.10) में ऐसे लोक का प्यारा वर्णन है, 'यत्र कामा निकामाश्च, यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् - जहां सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, आप हमें वहां अमरत्व दें।' फिर वहां की विशेषता का वर्णन और भी प्यारा है 'यत्रानन्दाश्च मोदाश्य, मुद: प्रमोद आसते - जहां आनंद हैं, मोद, हैं प्रमोद हैं, आमोद हैं, वहां आप मुझे अमरत्व दें।' (वही, 11)
ऋग्वेद में पुनर्जन्म-
वैदिक साहित्य पुनर्जन्म की मान्यता से भरा हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि वामदेव कहते हैं 'अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं, कक्षीवां - मैं मनु हुआ, मैं सूर्य हुआ, मैं ही कक्षीवान ऋषि हूं, मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' हूं और मैं ही उशना कवि हूं। मुझे ठीक से देखो - पश्यतां मा'। (ऋ0 4.26.1) ऋग्वेद में स्वतंत्र विवेक और गहन अनुभूति है।
वामदेव कहते हैं 'मैंने गर्भ (ज्ञान गर्भ) में रहकर इन्द्रादि सभी देवताओं के जन्म का रहस्य जाना है।' (वही 4.27.1) ऋग्वेद (1.164.30) में कहते हैं 'मरणशील शरीरों के साथ जुड़ा जीव अविनाशी है।
मृत्यु के बाद यह जीव अपनी धारण शक्ति से सम्पन्न रहता है और निर्बाध विचरण करता है।' यहां 'मृत्यु के बाद भी निर्बाध विचरण' की स्थापना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद (1.164.38) में कहते हैं 'अर्मत्य जीव मरणधर्मा शरीर से मिलते हुए विभिन्न योनियों में जाता है। अधिकांश लोग शरीर को ही जानते हैं, पर दूसरे (जीव) को नहीं जानते।'
ऋग्वेद के एक देवता सर्वव्यापी अदिति हैं। वे अंतरिक्ष हैं, आकाश हैं, पृथ्वी हैं, भूत हैं, भविष्य हैं। अदिति ही मृत मां-पिता के दर्शन कराने में सक्षम है। ऋषि कहते हैं 'हम किस देव का स्मरण करें? जो हमें अदिति से मिलवाएं, जिससे हम अपने मृत मां-पिता को देख सकें?' (1.24.1)
उत्तर है 'हम अग्नि का स्मरण करें। वे हमें अदिति से मिलवाएंगे, अदिति के माध्यम से हम मां-पिता को देख सकेंगे।' (वही, 2)। मृत माता-पिता से मिलवाने की अनुभूति ध्यान देने योग्य है। जीवन मृत्यु के बाद भी प्रवाहमान रहता है। ऋग्वेद (10.14) के देवता यम हैं 'वे पुण्यवानों को सुखद धाम ले जाते हैं।' (10.14.1) मृत्यु सारा खेल खत्म नहीं करती।
कहते हैं, 'जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य 'स्व-स्व' (कर्म) अनुसार जाएंगे।' (वही, 2) कहते हैं 'हे पिता! पुण्यकर्मों के कारण पितरों के साथ उच्च लोक में रहे। पाप कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद पुन: शरीर धारण करें- सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा'। (वही, यहां मृत पिता के पुनर्जन्म की कामना है। अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं 'वह पहले था। वही गर्भ में आता है, वही पिता, वही माता, वही पुत्र होता है। वह नए जन्म लेता है। (अथर्व 10.8.13) अथर्ववेद भी ऐसी स्थापनाओं से भरा पूरा है।
पुनर्जन्म का विचार मिस्र में भी था। अलेक्जेन्ड्रिया के यहूदियों में था।
कार्क हेकेल कहते हैं - मुझे निश्चय हो चुका कि जितनी अधिक गम्भीरता से हम मिस्री धर्म का अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्पष्ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्री धर्म के लिए आत्मा की देहान्तर प्राप्ति का सिद्धांत बिल्कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह 'ओसाइरिस' उपदेशों में अन्तनिर्हित न होकर हिन्दू उद्गम से प्राप्त हुआ है।'
हिब्रू लोगों में भी ऐसा ही विचार है। हिब्रुओं को यह विचार मिस्र से मिला और मिस्रियों को भारत से। यूनानी चिन्तन की शुरुआत (थेल्स ई. पूर्व 600) में पुनर्जन्म जैसा विचार नहीं था। प्रथम यूनानी पाइथागोरस ने यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धांत सिखाया। अपूलियस के अनुसार पाइथागोरस भारत आये थे।
बुद्ध दर्शन में भी पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'भिक्षुओं चार सत्यों का बोध न होने से ही मेरा, तुम्हारा संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना हुआ है। वे चार बाते हैं - आर्य शील, आर्य समाधि, आर्य प्रज्ञा और आर्य विमुक्ति।' (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2)
बुद्ध के चार सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्धदर्शन में पुनर्जन्म का कारण अज्ञान है, उपनिषद् दर्शन में अविद्या है। पुनर्जन्म दोनों में है। अविद्या और विद्या का मूलस्रोत उपनिषद् हैं। बुद्ध को इसकी अनुभूति हैं। उन्होंने शिष्य आनंद को बताया 'आनंद! क्या जरा और मृत्यु सकारण है? कहना चाहिए -मां है। किस कारण से है? कहना चाहिए - 'भव' (आवागमन) के कारण। तब भव किस कारण है? कहना चाहिए - उपादान (आसक्ति) के कारण। तो उपादान क्यों है? उत्तर है तृष्णा के कारण। यहां मुख्य बात तृष्णा है। तृष्णा शून्यता निर्वाण है। उपनिषदों में तृष्णा की जगह इच्छा, कामना या अभिलाषा है।
बौद्ध प्रचारको का कार्य ही क्षेत्र एलेक्जेन्ड्रिया व एशिया में रहा है। स्पष्ट ही पुनर्जन्म का भारतीय विचार विभिन्न स्रोतों से विश्वव्यापी हुआ।
जीवन अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है, लेकिन मृत्यु उससे भी बड़ी पहेली है। मृत्यु को लेकर विज्ञान और दर्शन में अनेक प्रश्न है - क्या मृत्यु के बाद मनुष्य पूरा का पूरा समाप्त हो जाता है? या मृत्यु केवल शरीर पर ही घटित होती ह...ै? प्राण या आत्मतत्व मृत्यु के साथ ही मुक्त हो जाता है?
यह आत्मतत्व कहां चला जाता है? अगर कहीं जाता है तो कहीं से आता भी होगा? इससे अलग एक और मौलिक प्रश्न उत्पन्न होता है - क्या आत्मा सदा से है? या आत्मा का भी जन्म होता है? यदि आत्मा का जन्म होता है तो इसका भी अवसान होता है क्या? क्या मनुष्य की आत्मा या प्राण बार-बार जन्म लेता है? पुनर्जन्म का विचार वास्तव में है क्या?
ऐसे अनेक प्रश्न जिज्ञासु चित्त को मथते हैं। विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दुनिया के तमाम देशों में मृत्यु बाद के जीवन पर सोच-विचार हुआ था। लेकिन प्रकृति विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति रहस्यों के साथ ही मनुष्य के अन्तर्जगत पर भी शोध किये थे। इसलिए भारत की अनुभूति ने आत्मा को अमर माना और शरीर को नाशवान।
यम-नचिकेता संवाद-
यह बहस पुरानी है। विश्व स्तर पर इसका विज्ञान सम्मत और निर्णायक समाधान होना शेष है। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही आत्मा का अमरत्व और देहान्तरण तर्क और अनुभूति का विषय रहे हैं।
कठोपनिषद् प्राचीन उपनिषद् है। यहां यम और नचिकेता का प्रश्नोत्तर है। नचिकेता ने अग्नि रहस्य पूछा, यम का उत्तर मिला। वह संतुष्ट हुआ। अंतिम प्रश्न चुनौतीपूर्ण था- 'मृत मनुष्यों के बारे में संशय है कि कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद यह आत्मा शेष रहती है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहती। आप सही बात का उपदेश दें।' (1.1.20)
भारत का उत्तर वैदिक काल रोमांचकारी है। तब नचिकेता जैसे युवा-बालक भी मृत्यु रहस्यों के प्रति जिज्ञासु थे। यम ने पते की बात की 'प्राचीन काल में भी इस विषय पर संदेह रहा है। यह विषय अति सूक्ष्म है- हि एष: धर्म अणु:। तुम कोई दूसरा वर मांगो।
उपनिषद् के रचना काल के पहले से ही यह विषय भारतीयों की जिज्ञासा था। यम के उत्तर में आत्मा की अमरता का उल्लेख है, 'यह आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न किसी से हुआ है। यह किसी कारण नहीं है और न किसी का कार्य। यह शाश्वत है, अजन्मा है।'
अथर्ववेद में इस अजन्मा को 'अग्नि और ज्योति-प्रकाश' बताया गया है -अजो अग्निरजमु ज्योति। (9.5.7) कहते हैं 'हे अज! आप अजन्मा और स्वर्ग रूप हैं-अजो इस्यज स्वर्गो असि। (वही, 15)
पुनर्जन्म और श्रीकृष्ण...
पुनर्जन्म का भारतीय विचार आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पुनर्जन्म से जुड़ी तमाम घटनाएं विश्व स्तर पर अक्सर घटित होती हैं।
श्रीकृष्ण ने गीता (4.1) में कहा कि 'योग का यह ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था, उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था।' अर्जुन ने प्रति प्रश्न किया 'आपका जन्म बाद का है और विवस्वान का बहुत प्राचीन है।' (वही 4) श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन! मेरे तेरे बहुत जन्म हो चुके। मैं जानता हूं तू नहीं जानता।' (वही 5)
पुनर्जन्म बेशक भारतीय अनुभूति है, लेकिन ईसा ने भी श्रीकृष्ण की ही तर्ज पर कहा था 'जब अब्राहम हुआ था मैं उसके भी पहले था।' (जौन, 8.58)
जैसे कृष्ण ने स्वयं को पूर्व हुए लोगों के भी पहले विद्यमान बताया वैसे ही ईसा ने स्वयं को पूर्व हुए अब्राहम के भी पहले विद्यमान बताया।
श्रीकृष्ण ने ज्ञान-संन्यास का मर्म समझाते हुए अध्याय 5(17) में कहा, 'अपनी सम्पूर्ण चेतना को परमसत्ता की ओर लगाने वाले वहां पहुंचते हैं, जहां से यहां लौटना नहीं होता।' ऋग्वेद (9.113.10) में ऐसे लोक का प्यारा वर्णन है, 'यत्र कामा निकामाश्च, यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् - जहां सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, आप हमें वहां अमरत्व दें।' फिर वहां की विशेषता का वर्णन और भी प्यारा है 'यत्रानन्दाश्च मोदाश्य, मुद: प्रमोद आसते - जहां आनंद हैं, मोद, हैं प्रमोद हैं, आमोद हैं, वहां आप मुझे अमरत्व दें।' (वही, 11)
ऋग्वेद में पुनर्जन्म-
वैदिक साहित्य पुनर्जन्म की मान्यता से भरा हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि वामदेव कहते हैं 'अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं, कक्षीवां - मैं मनु हुआ, मैं सूर्य हुआ, मैं ही कक्षीवान ऋषि हूं, मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' हूं और मैं ही उशना कवि हूं। मुझे ठीक से देखो - पश्यतां मा'। (ऋ0 4.26.1) ऋग्वेद में स्वतंत्र विवेक और गहन अनुभूति है।
वामदेव कहते हैं 'मैंने गर्भ (ज्ञान गर्भ) में रहकर इन्द्रादि सभी देवताओं के जन्म का रहस्य जाना है।' (वही 4.27.1) ऋग्वेद (1.164.30) में कहते हैं 'मरणशील शरीरों के साथ जुड़ा जीव अविनाशी है।
मृत्यु के बाद यह जीव अपनी धारण शक्ति से सम्पन्न रहता है और निर्बाध विचरण करता है।' यहां 'मृत्यु के बाद भी निर्बाध विचरण' की स्थापना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद (1.164.38) में कहते हैं 'अर्मत्य जीव मरणधर्मा शरीर से मिलते हुए विभिन्न योनियों में जाता है। अधिकांश लोग शरीर को ही जानते हैं, पर दूसरे (जीव) को नहीं जानते।'
ऋग्वेद के एक देवता सर्वव्यापी अदिति हैं। वे अंतरिक्ष हैं, आकाश हैं, पृथ्वी हैं, भूत हैं, भविष्य हैं। अदिति ही मृत मां-पिता के दर्शन कराने में सक्षम है। ऋषि कहते हैं 'हम किस देव का स्मरण करें? जो हमें अदिति से मिलवाएं, जिससे हम अपने मृत मां-पिता को देख सकें?' (1.24.1)
उत्तर है 'हम अग्नि का स्मरण करें। वे हमें अदिति से मिलवाएंगे, अदिति के माध्यम से हम मां-पिता को देख सकेंगे।' (वही, 2)। मृत माता-पिता से मिलवाने की अनुभूति ध्यान देने योग्य है। जीवन मृत्यु के बाद भी प्रवाहमान रहता है। ऋग्वेद (10.14) के देवता यम हैं 'वे पुण्यवानों को सुखद धाम ले जाते हैं।' (10.14.1) मृत्यु सारा खेल खत्म नहीं करती।
कहते हैं, 'जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य 'स्व-स्व' (कर्म) अनुसार जाएंगे।' (वही, 2) कहते हैं 'हे पिता! पुण्यकर्मों के कारण पितरों के साथ उच्च लोक में रहे। पाप कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद पुन: शरीर धारण करें- सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा'। (वही, यहां मृत पिता के पुनर्जन्म की कामना है। अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं 'वह पहले था। वही गर्भ में आता है, वही पिता, वही माता, वही पुत्र होता है। वह नए जन्म लेता है। (अथर्व 10.8.13) अथर्ववेद भी ऐसी स्थापनाओं से भरा पूरा है।
पुनर्जन्म का विचार मिस्र में भी था। अलेक्जेन्ड्रिया के यहूदियों में था।
कार्क हेकेल कहते हैं - मुझे निश्चय हो चुका कि जितनी अधिक गम्भीरता से हम मिस्री धर्म का अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्पष्ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्री धर्म के लिए आत्मा की देहान्तर प्राप्ति का सिद्धांत बिल्कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह 'ओसाइरिस' उपदेशों में अन्तनिर्हित न होकर हिन्दू उद्गम से प्राप्त हुआ है।'
हिब्रू लोगों में भी ऐसा ही विचार है। हिब्रुओं को यह विचार मिस्र से मिला और मिस्रियों को भारत से। यूनानी चिन्तन की शुरुआत (थेल्स ई. पूर्व 600) में पुनर्जन्म जैसा विचार नहीं था। प्रथम यूनानी पाइथागोरस ने यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धांत सिखाया। अपूलियस के अनुसार पाइथागोरस भारत आये थे।
बुद्ध दर्शन में भी पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'भिक्षुओं चार सत्यों का बोध न होने से ही मेरा, तुम्हारा संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना हुआ है। वे चार बाते हैं - आर्य शील, आर्य समाधि, आर्य प्रज्ञा और आर्य विमुक्ति।' (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2)
बुद्ध के चार सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्धदर्शन में पुनर्जन्म का कारण अज्ञान है, उपनिषद् दर्शन में अविद्या है। पुनर्जन्म दोनों में है। अविद्या और विद्या का मूलस्रोत उपनिषद् हैं। बुद्ध को इसकी अनुभूति हैं। उन्होंने शिष्य आनंद को बताया 'आनंद! क्या जरा और मृत्यु सकारण है? कहना चाहिए -मां है। किस कारण से है? कहना चाहिए - 'भव' (आवागमन) के कारण। तब भव किस कारण है? कहना चाहिए - उपादान (आसक्ति) के कारण। तो उपादान क्यों है? उत्तर है तृष्णा के कारण। यहां मुख्य बात तृष्णा है। तृष्णा शून्यता निर्वाण है। उपनिषदों में तृष्णा की जगह इच्छा, कामना या अभिलाषा है।
बौद्ध प्रचारको का कार्य ही क्षेत्र एलेक्जेन्ड्रिया व एशिया में रहा है। स्पष्ट ही पुनर्जन्म का भारतीय विचार विभिन्न स्रोतों से विश्वव्यापी हुआ।
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