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Saturday, April 19, 2014
वेद हैं क्या?
वेदों को हिंदू धर्म का आधार माना जाता है| हज़ारों वर्षों से भारत की शिक्षा पद्धति में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के आरंभिक २५ वर्ष वेदों के पठन में व्यतीत करता था| यही गुरुकुल शिक्षा पद्धति का आधार रहा है| वेदों का अगला चरण है वेदांत| वेद ४ हैं – यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद तथा ऋग्वेद| अधिकतर लोग वेदों को पुस्तक समझते हैं| उनके अनुसार इन वेदों की रचना ऋषियों ने की और जो कुछ है इस पुस्तक में है, इससे बाहर कुछ भी नहीं| यह बात बिलकुल सत्य है कि जो कुछ है वेदों में है और उससे बाहर कुछ नहीं परंतु यह बात वैसी नहीं है जैसा कि अधिकांश लोग इसे समझते हैं! दुर्भाग्यवश इस देश में पिछले कुछ हज़ार वर्षों से वेदों का रट्टा लगवाया गया जिससे इसके वास्तविक अर्थ के बजाय केवल श्लोक और संस्कृत व्याकरण पर लोग सिद्धहस्त होने लगे| इसके बाद वंशवाद के कारण जब लोगों ने इसकी ठेकेदारी शुरू कर दी तो ऐसा लगने लगा कि वेद केवल कुछ वर्ग विशेष के लिए ही लिखे गए हों! इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज के अन्य वर्गों के लोग वेदों के ज्ञान से वंचित रहने लगे| धीरे धीरे समाज की उत्सुकता कम होने लगी और ज्ञान के उस रिक्त स्थान को धर्मान्तरण और अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति ने भरना शुरू कर दिया|
वास्तव में वेद हैं क्या? वेद शब्द बना है ‘विद्’ धातु से| संस्कृत में विद् का अर्थ होता है किसी तथ्य या बात को ठीक से समझना| ठीक से समझने का मतलब उसके वास्तविक कारण को जानना| ठीक से किसे समझा जाए? अपने वजूद को! एक बात बहुत छोटी सी है कि जिस चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं हो, वह हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती| हम उसी वस्तु को जानने की कोशिश करते हैं जो हमारे मतलब की हो| हमारे मतलब की होगी तो जाहिर सी बात है कि उसका अस्तित्व अवश्य होगा! इस संसार में हम सभी का अपना खुद का एक दायरा है| हमारा अपना जीवन है, अपनी परिस्थितियाँ हैं और उन परिस्थितियों को जवाब देने के लिए हम सब की अपनी एक मानसिकता है| यही वजह है कि हम में से कोई भी एक जैसा नहीं है| हम सभी का अपना एक रास्ता है| लेकिन यह रास्ता हमें कहाँ लेकर जाता है? यदि आप कभी एकांत में मनन करें और यह विश्लेषण करें कि ज्ञान के धरातल पर अपने पैदा होने से अब तक आप कहाँ खड़े हैं, तो आप पाएँगे कि उस पल से लेकर अब तक आपने कुछ न कुछ सीखा ही है| हर नए पल के साथ आप मानसिक रूप से अधिक परिपक्व होते जाते हैं| आपको सिखाने का काम करते हैं आपके जीवन के हालात| ये हालात आप कभी खुद नहीं चुनते क्योंकि यदि आपको परिणाम शत प्रतिशत पता हों तो आप निष्क्रिय हो सकते हैं! हर नया पल आपको पिछले पल से बेहतर बुद्धि प्रदान करता है| इस बुद्धि की गुणवत्ता, हमारी मानसिक गुणवत्ता और परिस्थिति पर निर्भर करती है| कोई कितना भी बुद्धिमान हो अथवा मूर्ख, हर कोई अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने दायरे में, अपने लिए; पहले से बेहतर होता ही है| यह अहसास केवल और केवल उस व्यक्ति को ही होता है, कोई दूसरा शायद ही इस उन्नति को समझ सके| यह उन्नति जरूर होती है चाहे उसके बारे में हमें पता हो या न हो|
परिस्थितियों से मिलने वाला अनुभव ही ज्ञान होता है| जिस तरह परिस्थितियाँ अग्रसर होती रहती हैं, उसी तरह यह अनुभव या ज्ञान भी बढ़ता रहता है| लेकिन इसका अंत कहाँ है? कब तक यह सिलसिला चलता रहेगा? कब तक नयी परिस्थितियाँ आती रहेंगी और हम सीखते रहेंगे? यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा जब तक हम अंतिम सत्य तक न पहुँच जाएँ! अंतिम सत्य यही है कि दुनिया की चकाचौंध चार ही दिन की है| यह स्थाई नहीं है| आप अपने जीवन में भी इसे अनुभव करते ही होंगे कि संसार के सभी भोग हमेशा नहीं रहते| शरीर के साथ सब यहीं छूट जाता है! फिर भी हर कोई संतुष्ट होकर नहीं मरता| कुछ न कुछ भीतर रह ही जाता है| कभी कुछ पाना रह जाता है तो कभी कुछ पछताना रह जाता है! इसी यात्रा को पूरा करने के लिए फिर हम एक नयी कहानी शुरू करते हैं एक नए जन्म के रूप में| फिर यही सिलिसिला शुरू होता है परिस्थिति और अनुभव का| हम तब तक आगे बढ़ते रहते हैं जब तक यह दुनिया और इसके भोगों का रहस्य हमारी बुद्धि में फीड नहीं हो जाता! जब तक यह बात हमारी धारणा और कर्म में नहीं आ जाती कि जो आता जाता रहता है उसे सत्य नहीं कहते और जो स्थिर है वही सत्य है, तब तक इस दुनिया के मेले में सुख-दुःख तथा परिस्थितियों के थपेड़े हम सहन करते ही रहते हैं| इस बात को मर्म से जानने के लिए विरक्ति या अलगाव चाहिए| विरक्ति का अर्थ होता है कि सारे सुख उपलब्ध होने के बावजूद उनका उपभोग करने में उबकाई आना| जैसे भरे पेट के बाद कुछ भी खाने का मन न करे| विरक्ति कोई पढ़कर सीखने वाली चीज़ नहीं है! कोई चाहे लाख समझाए परंतु विरक्ति का भाव आता तो अनुभव से ही है! कोई मंदिर मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर, गुरुकुल, मदरसे में कितना भी घुस कर बैठ जाए; कोई चाहे रात दिन गीता, कुरान, बाइबल रटता रहे लेकिन उसके मन में जरा भी कुछ भोग करने की इच्छा हुई तो समझ लेना कि अभी बहुत दूर जाना है| इसका एकमात्र कारण यही है कि विरक्ति केवल अनुभव से ही प्राप्त होती है और अनुभव पढ़ कर कभी नहीं सीखा जा सकता, उसके लिए कर्म करना ही पड़ता है!
यह प्रकृति का विधान है कि भोग का परिणाम हमेशा दुःख और कष्ट ही होता है| यह आप अनुभव भी कर सकते हैं| उदाहरण के तौर पर, एयर कंडीशनर सुख का एक साधन है| इसके लिए बिजली चाहिए| बिजली के लिए पावर स्टेशन चाहिए| पावर स्टेशन के लिए पानी और कोयला चाहिए| पानी और कोयले के लिए आपको नदियों को बांधना पड़ेगा और खनन करना पड़ेगा| जितनी अधिक एयर कंडीशनर की आवश्यकता होगी, उतनी ही अधिक खुदाई करनी पड़ेगी और बाँध बनाने पड़ेंगे| धरती के संसाधनों की भी अपनी एक सीमा है| यदि आप कोई चीज़ प्रकृति से लेकर उसे वापिस नहीं करते तो वह उधार प्रकृति सूद समेत आपसे छीन लेती है! कैसे? जब जमीन से खनन अधिक होता है तो वहाँ खाली जगह हो जाती है| इस खाली जगह को भरने के लिए जमीन के अंदर चट्टानें खिसकती हैं| इस खिसकाव से भूकंप आते हैं| पूरा का पूरा शहर जमीन के अंदर चला जाता है और फिर कुछ हज़ारों सालों के बाद उस शहर के लोग, जानवर और पेड़ पौधे कोयला बनकर निकलते हैं! ऐसे हिसाब पूरा होता है प्रकृति का| आप उसे संसाधन वापिस नहीं दे पाए तो उसने आपको ही संसाधन बना लिया! इसीलिए भारतीय सभ्यता में पायी जाने वाली कोई भी पद्धति प्रकृति के नियमों का कभी उल्लंघन नहीं करती| इन सभी तकनीकों के पीछे महान वैज्ञानिक कारण रहे हैं जो अब दुनिया इसीलिए समझ पा रही है क्योंकि भोग से उत्पन्न जो कष्ट हुआ उससे यह अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त हुआ है| यही कारण है कि विश्व भारतीय चिंतन पर शोध करना चाहता है! यह उदाहरण सिखाता है कि कैसे व्यक्ति, जाति, देश परिस्थितियों के वशीभूत हो कर ज्ञान प्राप्त करते हैं|
विरक्ति होने के बाद अगला उद्देश्य रह जाता है सच्ची संतुष्टि को प्राप्त करना| विरक्ति हमें इसीलिए हुई थी क्योंकि हमने झूठी चीज़ों को टटोलकर उनकी सच्चाई का पता लगाया लेकिन संतुष्टि तभी मिलेगी जब हमें किसी ठोस सत्य के दर्शन होंगे| सत्य का अर्थ है जब हमें पता चलेगा कि वह कौन सी चीज़ है जो कभी नहीं बदलती और कभी नहीं खत्म होती! ऐसी केवल एक ही सत्ता है और वह है आत्मा! आत्मा यानी चेतना| आपको अपने होने की अभिव्यक्ति| यदि हम केवल हाड़ माँस के बने हुए शरीर ही होते तो हम जिन्दा नहीं कहे जा सकते थे| फिर हम non living thing कहे जाते| ऐसा इसीलिए क्योंकि फिर हमारे और मेज, कुर्सी, गाड़ी, सड़क, लकड़ी, लोहे के बीच कोई फर्क ही नहीं रह जाता! हमें भी काटने पर दर्द नहीं होता| हमारे अंदर भी कोई अहसास नहीं होता लेकिन सच्चाई यह है कि हम सोच सकते हैं, समझ सकते हैं, प्रतिक्रिया दे सकते हैं, बेहतर बन सकते हैं और आस पास के माहौल को ढाल सकने की क्षमता रखते हैं और इन सब के पीछे केवल एक अहसास है ‘मैं’ या मेरा अस्तित्व| क्या है यह ‘मैं’ और यह अस्तित्व किसका है इस हाड़ मांस के शरीर में जो यह सब कर रहा है? जब मैं अपने बारे में सोचता हूँ तो वो एक ही अहसास होता है| ऐसा नहीं होता कि मेरे हाथ, पैर, किडनी, गर्दन, घुटने, बाल सब कुछ अलग अलग सोच रहे हैं| वो कोई एक चीज़ अपनी तरफ इशारा करती है कि यह तू है! यही है हमारी चेतना या आत्मा जो न कभी पैदा होती है और न कभी मरती ही है! इसी के बारे में कहा गया है:
“नैनं छिन्दन्ति शास्त्रानी नैनं दहति पावकः|
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः||
अक्चेद्योअयमदह्योअयमक्लेद्योअशोश्य एव च|
नित्यः सर्वगतः स्थानुर्चलोयम सनातनः||”
- श्रीमद्भगवद्गीता (२:२३-२४)
अर्थात न तो इस आत्मा को कोई शास्त्र काट सकता है, न इसे आग जला सकती है और न ही इसका शोषण करने का साहस वायु में है| यह आत्मा जलाई और सताई नहीं जा सकती| यह स्थिर है, सर्वव्यापी है और सनातन (जो न कभी पैदा हो और न कभी मरे) है|
यही सत्य सभी सत्यों का आधार है और अंत में जानने योग्य शेष रह जाता है| यही वो ज्ञान है जिसकी अनुभूति के लिए व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सारा संसार भिन्न भिन्न मार्गों से अपने तरीके से संघर्ष कर रहे हैं| जब तक यह संघर्ष जारी रहेगा तब तक इस दुनिया में ऐसे हालात रहेंगे| ये हालात फिर नए हालातों को जन्म देंगे जिसमें व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और दुनिया अपना अपना किरदार निभाएंगे और यह ऐसे ही चलता रहेगा जब तक सृष्टि यह अनुभव न प्राप्त कर ले कि सब कुछ बेकार है, केवल आत्मा ही सत्य है! इस आत्मा को ही हम लौकिक जगत की परिभाषा में ईश्वर, अल्लाह, god, रब आदि नामों से पुकारते हैं| इन सभी शब्दों का अपना कोई भी अस्तित्व नहीं है, अगर होता तो कोई न कोई एक तो ऐसा उदाहरण इस दुनिया में अवश्य होता जिसने इनको कभी देखा होता! ये शब्द एक विश्वास से अधिक और कुछ भी नहीं हैं| ये शब्द या कहें कि इनका डर इंसान को सत्य के अनुभव की ओर प्रेरित करता रहता है| अंत में कहा यही जाता है कि जिसने खुद को पा लिया उसने सब कुछ पा लिया! आत्मा या अपनी चेतना को पा लेना ही वो ज्ञान है जो पाना शेष है| इसके बाद फिर चाह कर भी कोई प्रश्न पैदा नहीं हो पाता! यही चरितार्थ करता है ‘विद्’ धातु को| जो जान लेता है उसे कहते हैं विद्वान और जिसे वह जान लेता है उसे कहते हैं ‘वेद’ अर्थात जानने योग्य| ऊपर जो कथा लिखी है, यह वेद का अभिप्राय है| जो आप अपने जीवन में अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं, वही है वेदांत अथवा वेदों का निचोड़| यही कारण है कि अनंत काल से वेदों को श्रुति के रूप में ग्रहण किया जाता था| श्रुति का अर्थ है सुनकर| कोई पुस्तक नहीं हुआ करती थी| इसे लिपिबद्ध किया गया महान ऋषियों द्वारा जिन्हें पता था कि आगे चलकर क्या हालात होंगे| इसीलिए वेदों को पुस्तकें समझने की भूल न करें! वेद वो सिद्धांत हैं जिन्हें आप अपने जीवन की परिस्थितियों से सीखते हैं| यह संसार आपकी practical laboratory है और आपके जीवन की परिस्थितियाँ assignments हैं|
वेदों की शिक्षा को समझाने के लिए ही पुराणों की रचना हुई| पुराणों में कथाएं हैं और हर कथा का उद्देश्य अंत में एक शिक्षा है जिसे अपनाकर व्यक्ति अपने उद्देश्य की ओर सुगमता से बढ़ सके| पुराणों की रचना महर्षि वेदव्यास जी द्वारा की गई| चूँकि पुराण वेदों का व्यास (extension) हैं, इसीलिए महर्षि जी का नाम वेद-व्यास रखा गया| वेदों की शिक्षा जो कि मन्त्र स्वरूप थी और गूढ़ थी, उन्हें कथा स्वरूप रोचक बनाकर आम इंसान के समझने हेतु बनाया गया| पुराणों में कई रीतियाँ और संस्कार भी शामिल हैं जिनके पीछे भी एक शिक्षा है| हिंदू धर्म में जितने भी देवी देवता हैं वे आपको पुराणों में ही मिलेंगे, वेदों में नहीं| कारण? देवी देवता कहानी के किरदार हैं और प्रत्येक देवी देवता को एक गुण दिया हुआ है जैसे फिल्म में किसी नायक नायिका का होता है| आत्मा या परमात्मा सर्वशक्तिमान और सर्वगुणसम्पन्न है, देवी देवताओं की रचना उन गुणों को ढालकर कथा के रूप में दी गईं ताकि एक साधारण व्यक्ति भी उस कथा को सुनकर उन गुणों का चिंतन कर सके और उस शिक्षा को ग्रहण कर सके| उदाहरण के तौर पर, शिव का प्रधान गुण है विनाशक, गणेश का है बुद्धिमता, विष्णु का पालनहार, दुर्गा का है नारी का स्वाभिमान और उसकी शक्ति, कार्तिकेय का है योद्धा आदि| पुराणों में ही मूर्ति पूजा और उससे जुड़े संस्कार आए जो वेदों में नहीं हैं| इन सभी का उद्देश्य है शिक्षा को हमेशा याद रखना| हम कोई कहानी सुनते हैं तो उसे कुछ समय पश्चात भूल जाते हैं लेकिन जब भी हम उस कहानी के किसी अंश को बार बार दोहराते हैं तो उससे जुड़ी शिक्षा हमेशा ताज़ा बनी रहती है| यही उद्देश्य है संस्कारों का| चूँकि एक साधारण व्यक्ति आम जीवन में इतना व्यस्त होता है इसीलिए दैनिक पूजा अराधना को जीवन में स्थान दिया गया ताकि वह ईश्वर के जिस भावस्वरूप को ध्यान करता है, उसी के सहारे अपने ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करे| बिना माँ के, ममता का कोई अर्थ नहीं क्योंकि माँ ही वो शख्स है जो ममता को आचरण में लाकर बताती है इसीलिए उसे ममता की मूरत कहा जाता है| ठीक उसी तरह ईश्वर के विभिन्न गुणों को समझने के लिए देवी देवताओं की रचना की गई ताकि उनकी कथा और अराधना के द्वारा मनुष्य उन गुणों का अनुभव कर सके अपने भीतर| देवी देवता पूर्णतया काल्पनिक हैं परंतु उनके गुण सच्चे हैं क्योंकि वह उस एक आत्मा या परमात्मा के हैं| इस तत्व को ठीक तरह से जानने के बाद किसी तरह की पूजा अराधना की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि इस तत्व को जान लेना ही इन अनुष्ठानों का उद्देश्य है| यही मर्म है मूर्ति पूजा का|
आज धर्म के नाम पर जागरूकता कम और भय अधिक है| आज धर्म नाम का यह शब्द एक समूह में सिमट कर रह गया है जहाँ एक जैसी विचारधारा के लोग इकट्ठे होते हों| वास्तविक धर्म ही है सत्य को समझने की चेष्टा करना और उसके लिए जो बन पड़े उस कर्म को निष्ठापूर्वक करना| दूसरे शब्दों में धर्म का अर्थ है सत्य की अनुभूति के लिए जागरूकता के साथ आगे बढ़ना| धर्म या अध्यात्म कोई hypothetical सिद्धांत नहीं है| धर्म अनुभव करने की चीज़ है| यदि कोई पंथ या विचार लौकिक प्रश्नों का भी उत्तर न दे सके तो उसे त्याग देना ही उचित है और यही आधार है सनातन धर्म का जिसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है| यह धर्म पूर्ण वैज्ञानिक तथ्यों की पुष्टि पर आधारित है, इसीलिए कहा गया कि जिसका अस्तित्व हमें दिखाई पड़ता है केवल उसे ही आधार बनाकर अपनी सीख को आगे बढ़ाएं! जो अनुभव के आड़े आए, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह आपको सत्य से हमेशा दूर ही रखेगा! यही कारण है कि हिंदू धर्म अपौरुषेय है अर्थात इसका कोई जन्मदाता है और कभी हो भी नहीं सकता क्योंकि इसका आधार universal facts हैं जिन्हें न तो कोई चुनौती दे सकता है और न ही कोई इसे पैदा करने का दावा ही कर सकता है! आप उस व्यक्ति को क्या कहेंगे जो यह कहे कि दया, उपकार, सत्य, क्षमा, धैर्य तथा पराक्रम जैसे भाव का जन्मदाता वो खुद है या पता लगाने वाला वो पहला व्यक्ति है? पागल! वेद इन्हीं मौलिक गुणों को सिखाने का कार्य करते हैं और यही वेद इस धर्म का आधार हैं|
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