Pages

Pages

Pages

Thursday, December 18, 2014

शरीर की उत्पत्ति का कारण और उसका निमित्त

Photo: शरीर की उत्पत्ति का कारण और उसका निमित्त
==================================

पूर्व जन्म में किए हुए कर्म के फल के रूप में शरीर की उत्पत्ति होती है, अर्थात् जो शरीर हम इस जन्म में पाते हैं, वह पूर्व जन्म के संस्कारों में से इष्ट की रक्षा और अनिष्ट के विनाश के लिए दिया जाता है।

परन्तु यह शरीर कौन देता है ??? क्या जीवात्मा स्वयं देता है ??? कदापि नहीं। यदि जीवात्मा का अधिकार होता, तो वह अपने लिए दुःख कभी न लेता। चाहे जैसा कर्म करता, प्राप्ति सुख की ही  करता। क्योंकि अनिष्ट कर्म और अनिष्ट संस्कार भी उसने सुख की प्राप्ति के भ्रम से ही किये थे। अब इन संस्कारों पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। अब तो संस्कारों ने उस पर अधिकार जमा लिया। वह चाहता भी है कि शराब न पीऊँ। शपथ खाता है, व्रत रखता है, प्रतिज्ञायें करता है, परन्तु शराब की बोतल सामने आते ही वह सब प्रतिज्ञाएँ भूल जाता है।

फिर क्या यह संस्कार स्वयं शरीर को उत्पन्न करते हैं ??? यह भी नहीं। संस्कार जड है। उसमें शरीर उत्पत्ति की सामर्थ्य नहीं। दूसरे यदि अनिष्ट संस्कार शरीर को बना सकते या बनाते  तो अपनेअनुकूल अर्थात् अनिष्ट शरीर ही बनाते। कोई अपने नाश के लिए सामग्री उपस्थित नहीं करता। यदि शरीर पर मैल जम गया है, तो मैल स्वयं साबुन नहीं धोयेगा। उसके दूर  करने के लिए साबुन लाने का कोई निमित्त चाहिए। इसलिए ऋषिवर गौतम ने कहा हैः----

"ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात्।" (न्याय-दर्शनः---4.1.19)

फल का स्वरूप
--------------------------

पहले सूत्र में तो कहा था कि पूर्व जन्म के कर्मों के कारण से शरीर मिलता है। इस सूत्र में कहते हैं कि पूर्व जन्म के कर्म स्वयं ही फल रूपी शरीर को उत्पन्न नहीं करते, किन्तु कार्यों के अनुसार ईश्वर उनका फल देता है।

इस पर पूर्व में एक और सूत्र हैः----

"न पुरुषकर्माsभावे फलानिष्पत्तेः।" (न्याय-दर्शनः---4.1.20)
अर्थात् पुरुष के कर्म न हों तो फल न मिले। इसलिए ईश्वर के मानने की क्या आवश्यकता है ???

इसका उत्तर शास्त्रकार गौतम देते हैंः---

"तत्कारित्वात्वादहेतुः।" (न्याय-दर्शनः---4.1.21)
अर्थात् यह आक्षेप ठीक नहीं, क्योंकि कर्म का फल ईश्वराधीन है।

कर्मफल का दाता ईश्वर ही है
-------------------------------------

इस प्रकार कर्म का फल मिलने से सिद्ध है कि ईश्वर अवश्य है। ईश्वर न्यायकारी है, अतः वह फल अवश्य कर्म के अनुकूल देगा।

"पुण्यः पुण्येन पापः पापेन।" (बृहदारण्यकोपनिषद्--3.2.23)

परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य स्वयं अपना फल दे लेंगे और पाप स्वयं। बहुत से लोग जैसे जैनी आदि कहते हैं कि कर्म स्वयं अपना फल देता है, अतः ईश्वर का अस्तित्व मानने की आवश्यकता नहीं है। यदि वस्तुतः कर्म स्वयं भी अपना फल दे सकता तो भी सृष्टि रचना के लिए ईश्वर के अस्तित्व को मानना आवश्यक है। परन्तु जैनी लोगों को यह भ्रम कर्म की मीमांसा के न समझने के कारण होता है। वह संस्कार को ही कर्म का फल समझ बैठे हैं। वस्तुतः वह कर्म का अन्त है फल नहीं। इसके दृष्टान्त में भी मिलते हैं। कल्पना कीजिए कि मैं अध्यापक हूँ। नित्य विद्यार्थियों को पढाता हूँ, पढाना मेरा कर्म है। इस पढाने के सूक्ष्म संस्कार मेरे आत्मा पर बैठते जाते हैं, अर्थात् मेरा ज्ञान और मुझमें विद्यार्थियों के लिए प्रेम बढता है। परन्तु यह संस्कार फल नहीं है। मुझे वेतन जो मिलता है, वह फल है, इस वेतन का उपयोग यह है कि जो इष्ट संस्कार है, उनकी रक्षा या उनमें वृद्धि हो। यदि मैं अध्यापन में चूक करता हूँ तो मेरे आत्मा पर अनिष्ट संस्कार बैठते हैं। ह भी मेरे चक्र का अन्त है, फल नहीं। फल दण्ड स्वरूप मिलता है, जिससे यह अनिष्ट संस्कार शीघ्र ही धूल जाएँ। वेतन की प्राप्ति या दण्ड का मिलना उन संस्कारों के कारण होता है, परन्तु उन संस्कारों द्वारा नहीं होता। यह तो अधिकारी वर्ग की ओर से होता है।

इसलिए कर्मफल का नियम ईश्वर की सिद्धि में एक बहुत बडा प्रमाण है। कर्मफल के वास्तविक रूप को समझने से नास्तिकों के बहुत आक्षेप दूर हो सकते हैं , अर्थात्........................

शेष भाग अग्रिम अंक में......................

वैदिक संस्कृत
शरीर की उत्पत्ति का कारण और उसका निमित्त

पूर्व जन्म में किए हुए कर्म के फल के रूप में शरीर की उत्पत्ति होती है, अर्थात् जो शरीर हम इस जन्म में पाते हैं, वह पूर्व जन्म के संस्कारों में से इष्ट की रक्षा और अनिष्ट के विनाश के लिए दिया जाता है।

परन्तु यह शरीर कौन देता है ??? क्या जीवात्मा स्वयं देता है ??? कदापि नहीं। यदि जीवात्मा का अधिकार होता, तो वह अपने लिए दुःख कभी न लेता। चाहे जैसा कर्म करता, प्राप्ति सुख की ही करता। क्योंकि अनिष्ट कर्म और अनिष्ट संस्कार भी उसने सुख की प्राप्ति के भ्रम से ही किये थे। अब इन संस्कारों पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। अब तो संस्कारों ने उस पर अधिकार जमा लिया। वह चाहता भी है कि शराब न पीऊँ। शपथ खाता है, व्रत रखता है, प्रतिज्ञायें करता है, परन्तु शराब की बोतल सामने आते ही वह सब प्रतिज्ञाएँ भूल जाता है।

फिर क्या यह संस्कार स्वयं शरीर को उत्पन्न करते हैं ??? यह भी नहीं। संस्कार जड है। उसमें शरीर उत्पत्ति की सामर्थ्य नहीं। दूसरे यदि अनिष्ट संस्कार शरीर को बना सकते या बनाते तो अपनेअनुकूल अर्थात् अनिष्ट शरीर ही बनाते। कोई अपने नाश के लिए सामग्री उपस्थित नहीं करता। यदि शरीर पर मैल जम गया है, तो मैल स्वयं साबुन नहीं धोयेगा। उसके दूर करने के लिए साबुन लाने का कोई निमित्त चाहिए। इसलिए ऋषिवर गौतम ने कहा हैः----

"ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात्।" (न्याय-दर्शनः---4.1.19)

फल का स्वरूप
--------------------------

पहले सूत्र में तो कहा था कि पूर्व जन्म के कर्मों के कारण से शरीर मिलता है। इस सूत्र में कहते हैं कि पूर्व जन्म के कर्म स्वयं ही फल रूपी शरीर को उत्पन्न नहीं करते, किन्तु कार्यों के अनुसार ईश्वर उनका फल देता है।

इस पर पूर्व में एक और सूत्र हैः----

"न पुरुषकर्माsभावे फलानिष्पत्तेः।" (न्याय-दर्शनः---4.1.20)
अर्थात् पुरुष के कर्म न हों तो फल न मिले। इसलिए ईश्वर के मानने की क्या आवश्यकता है ???

इसका उत्तर शास्त्रकार गौतम देते हैंः---

"तत्कारित्वात्वादहेतुः।" (न्याय-दर्शनः---4.1.21)
अर्थात् यह आक्षेप ठीक नहीं, क्योंकि कर्म का फल ईश्वराधीन है।

कर्मफल का दाता ईश्वर ही है
-------------------------------------

इस प्रकार कर्म का फल मिलने से सिद्ध है कि ईश्वर अवश्य है। ईश्वर न्यायकारी है, अतः वह फल अवश्य कर्म के अनुकूल देगा।

"पुण्यः पुण्येन पापः पापेन।" (बृहदारण्यकोपनिषद्--3.2.23)

परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य स्वयं अपना फल दे लेंगे और पाप स्वयं। बहुत से लोग जैसे जैनी आदि कहते हैं कि कर्म स्वयं अपना फल देता है, अतः ईश्वर का अस्तित्व मानने की आवश्यकता नहीं है। यदि वस्तुतः कर्म स्वयं भी अपना फल दे सकता तो भी सृष्टि रचना के लिए ईश्वर के अस्तित्व को मानना आवश्यक है। परन्तु जैनी लोगों को यह भ्रम कर्म की मीमांसा के न समझने के कारण होता है। वह संस्कार को ही कर्म का फल समझ बैठे हैं। वस्तुतः वह कर्म का अन्त है फल नहीं। इसके दृष्टान्त में भी मिलते हैं। कल्पना कीजिए कि मैं अध्यापक हूँ। नित्य विद्यार्थियों को पढाता हूँ, पढाना मेरा कर्म है। इस पढाने के सूक्ष्म संस्कार मेरे आत्मा पर बैठते जाते हैं, अर्थात् मेरा ज्ञान और मुझमें विद्यार्थियों के लिए प्रेम बढता है। परन्तु यह संस्कार फल नहीं है। मुझे वेतन जो मिलता है, वह फल है, इस वेतन का उपयोग यह है कि जो इष्ट संस्कार है, उनकी रक्षा या उनमें वृद्धि हो। यदि मैं अध्यापन में चूक करता हूँ तो मेरे आत्मा पर अनिष्ट संस्कार बैठते हैं। ह भी मेरे चक्र का अन्त है, फल नहीं। फल दण्ड स्वरूप मिलता है, जिससे यह अनिष्ट संस्कार शीघ्र ही धूल जाएँ। वेतन की प्राप्ति या दण्ड का मिलना उन संस्कारों के कारण होता है, परन्तु उन संस्कारों द्वारा नहीं होता। यह तो अधिकारी वर्ग की ओर से होता है।

इसलिए कर्मफल का नियम ईश्वर की सिद्धि में एक बहुत बडा प्रमाण है। कर्मफल के वास्तविक रूप को समझने से नास्तिकों के बहुत आक्षेप दूर हो सकते हैं , अर्थात्....


No comments:

Post a Comment