Pages

Pages

Pages

Tuesday, May 31, 2016

!! वेदोंमें हिंसा नहीं है !!, Veda prohibits cruelty




!! वेदोंमें हिंसा नहीं है !!
कहा जाता है ,वेदोंमें यज्ञके लिए पशुहिंसाकी विधि है । अतः वेदोंका मान रखनेके लिए कुछ लोग "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति !" वेदविहित हिंसाका नाम हिंसाही नहीं है ,ऐसा कहा करते हैं ! परन्तु हिंसा हिंसा ही है,फिर वह चाहे कैसी ही हो ! वेदोंकी तो यह स्पष्ट आज्ञा है -"मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि !" (किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे ) फिर वैदिक हिंसा क्या वस्तु है ?
महाभारत अनुशासनपर्व में कहा गया है कि प्राचीन कालमें मनुष्य यज्ञ-यगादि केवल अन्नसे ही करते थे !मद्य मांस आदिकी प्रथा तो पीछे से धूर्त असुरोंने चला दी । वेदमें इन वस्तुओंका विधान नहीं है !
"श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां व्रीहिमय: पशु: ! येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणा: (महाभारत०अनु०११५/५६)
"सुरां मत्स्यान् मधु मांसमासवं कृसरौदनम् ! धूर्तै: प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् !!(महाभारत०शान्ति०२६५/९)
शिक्षा,कल्प,निरुक्ति,छन्द, ज्योतिष और व्याकरण -ये षड्वेदाङ्ग हैं । ये वेदोंके साथ अङ्गाङ्गी -भावसे सम्बद्ध हैं वेदाङ्गोंमें पारंगत हुए बिना श्रुतिके गूढ़ रहस्य और प्रकृत अर्थको हृदयंगम करना सम्भव नहीं है ।
"ध्वर" शब्द का अर्थ हिंसा । जहाँ ध्वर अर्थात् हिंसा न हो ,उसी को "अध्वर " कहते हैं । यह "अध्वर" शब्द यज्ञका ही पर्याय है । अतः हिंसात्मक कृत्य कभी यज्ञ नहीं माना जा सकता ।
वैदिक यज्ञोंमें तो मांसका इतना विरोध है कि मांस जलाने वाली आग को सर्वदा त्याज्य निश्चित कर दिया गया है । प्रायः चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है । जहाँ अपनी मृत्युसे मरे हुए मनुष्योंके अंत्येष्टि-संस्कारमें उपयोगकी हुई आगका भी बहिष्कार है,वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठित विशुद्ध अग्निमें अपने मारे हुए पशुके होमका विधान कैसे हो सकता है ? आज भी जब वेदी पर अग्निकी स्थापना होती है तो उसमें से थोड़ीसी आग निकालकर बाहर कर दी जाती है । इसलिए कि कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली आग) -के परमाणु न मिल गए हों । अतएव 'क्रव्यादांशं त्यक्त्वा' (क्रव्यादका अंश निकालकर ही) होमकी विधि है । ऋग्वेदकी श्रुति प्रमाण है -
"क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यज्ञराज्ञो गच्छतु रिप्रवाह: !
इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् !!(ऋक्०७/२१/९)
अर्थात् -मैं मांस खाने या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ ,यह पापका भार ढोनेवाली है ;अतः यमराजके घरमें जाय । इससे भिन्न जो ये दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव हैं,इनको ही यहां उपस्थित करता हूँ ! ये इस हविष्यको देवताओंके समीप पहुंचाएं ;क्योंकि ये सब देवताओंको जानने वाले हैं ।"
यजुर्वेदके अनेक मन्त्रों में भगवान् से प्रार्थनाकी गयी है कि वे हमारे पुत्रों ,पशुओं -गाय और घोड़ोंको हिंसाजनित मृत्युसे बचावें -
'मा नस्तनये मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषु: !'
'पशून् पाहि,गां मा हिंसी:,अजां मा हिंसी:,अविं मा हिंसी:, !इमं मा हिंसीर्द्विपादं पशुम् ,मा हिंसीरेकशफं पशुम्,मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि !
पशुओंकी रक्षाकरो !''गायको न मारो!' 'बकरी को न मारो!' 'भेड़ोंको न मारो!' 'इन दो पैर वाले प्राणियोंको न मारो!' 'एक खुरवाले घोड़े-गधे आदि पशुओंको न मारो ' ' किसी भी प्राणीकी हिंसा न करो ' आदि ।
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गायका मांस खाता हो तथा गायके दूधको चुराता लेता हो,उसका मस्तक काट डालो--
"य: पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः !
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च !!(ऋक्०८/४/१६)
अब प्रश्न होता है कि वेदमें यदि मांसका वाचक या पशुहिंसाका बोधक कोई शब्द ही प्रयुक्त न हुआ होता तो कोई भी कैसे उस तरहका अर्थ निकाल सकता है ? इसके उत्तरमें हम महाभारतसे एक प्रसङ्ग उद्धृत कर देना चाहते हैं । एक बार ऋषियों तथा दूसरे लोगों में "अज" शब्दके अर्थ पर विवाद हुआ । एक पक्ष कहता था 'अजेन यष्टव्यम् ' का अर्थ है 'अन्नसे यज्ञ करना चाहिए । अजका अर्थ है -उत्पत्तिरहित;अन्नका बीज ही अनादि -परम्परासे चला आ रहा है; अतः वही 'अज' का मुख्य अर्थ है ; इसकी उत्पत्तीका समय किसीको ज्ञात नहीं हैं , अतः वही 'अज' है !' दूसरा पक्ष कहता था 'अज' का अर्थ बकरा है । पहला पक्ष ऋषियोंका था ! दोनों राजा वसुके पास निर्णय कराने के लिए गए ! वसु अनेक यज्ञ कर चुका था । उसके किसी भी यज्ञमें मांस का उपयोग नहीं हुआ था । वह सदा अन्नमय यज्ञ करता था ,परन्तु म्लेच्छोंके संसर्गसे पीछे चलकर वह ऋषियोंका द्वेषी बन गया था । ऋषि उसकी बदली हुई मनोवृत्ति से परिचित न थे । वे विश्वास करते गए । राजा सहसा निर्णय न दे सका । उसने पूछा 'किसका क्या पक्ष है ' ? जब उसे पता चला ऋषि लोग 'अज' का अर्थ अन्न करते हैं ,तो उसने उनके विरोधी पक्षका ही समर्थन करते हुए कहा 'छागेनाजेन यष्टव्यम् !' असुर तो यही चाहते ही थे । वे उसके प्रचारक बन गए ; परन्तु ऋषियोंने उस मत को ग्रहण नहीं किया ; क्योंकि वह पूर्वोक्त चारों हेतुओंसे असङ्गत ठहरता है ! 'अज' शब्द का तीसरा अर्थ परमात्मा भी है तो क्या यज्ञमें परमात्माकी बलि दी जाती है ? या परमात्माको बलि समर्पित की जाती है ?
संस्कृत वाङ्मयमें अनेकार्थक शब्द बहुत हैं । 'शब्दा: कामधेनव: ' यह प्रसिद्ध है । उनसे अनन्त अर्थों का दोहन होता है । कौन सा अर्थ कहाँ लेना ठीक है ;इसका निश्चय विवेकशील विद्वान् ही कर सकते हैं । "सैंधव" शब्द के अनेक अर्थ हैं , नमक,घोडा ,नदी और समुद्र होता है -
कोई यात्रा पर जा रहा हो और उसकी सवारीके लिए 'सैंधव'लाने का आदेश दे तो उस समय नमक देने वाला मनुष्य मुर्ख ही समझा जाता है , वहाँ सिंधु देशीय अश्व ही लाना उचित होगा ! इसी प्रकार भोजन में 'सैंधव ' डालने का आदेश देने पर नमक ही दिया जाएगा न कि अश्व काटके भोजन में डाल दिया जाए !
इसी प्रकार वेदके यज्ञ प्रकरणमें आये हुए शब्दका वहाँके सात्विक वातावरणके अनुरूप ही अर्थ ठीक हो सकता है । जहाँ दवा बनाने के लिए 'प्रस्थं कुमारिकामांसम् 'की आज्ञा है ; वहाँ सेरभर घीकुआँरका गुदा ही डाला जाएगा । कुमारी कन्या का एक सेर मांस डालने की तो कोई पिशाच ही सोच सकता है ।
यज्ञमें पशु बांधनेकी बात आती है । प्रश्न होता है ,वह पशु क्या है ? इसका उत्तर शतपथ-ब्राह्मणके एक प्रश्नोत्तर से स्पष्ट हो जाता है -'कतमः प्रजापति:? प्रजापति अर्थात् प्रजाका पालन करने वाला कौन है ? उत्तर मिलता है -'पशुरिति'-पशु ही प्रजापालक है । तात्पर्य यह कि जो पदार्थ या शक्तियाँ प्रजाका पोषण करने वाली हैं ; उन्हें पशु कहा गया है । इसीलिए भिन्न-भिन्न प्रकारके पशुओंकी यज्ञ में चर्चा की गयी है । 'नृणां व्रीहिमयः पशु:' - मनुष्योंके यज्ञमें अन्नमय पशुका उपयोग होता आया है । 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा: ' देवताओंने यज्ञसे ही यज्ञ किया था ; उनका यज्ञमय ही पशु था !
बिना वेदाङ्गोंके वेद मन्त्र का सही अर्थ नही किया जा सकता और वेदाङ्ग में
निरुक्तिकार यास्क ने इस मन्त्र का अर्थ करते हुए लिखा है -
'अग्नि: पशुरासीत्तं देवा अलभन्त '
'अग्नि ही पशु था ,उसीको देवता प्राप्त हुए । ' इतना ही नहीं अग्नि,वायु और सूर्य को भी 'पशु 'नाम दिया गया है -
"अग्नि: पशुरासीत्तेनायजन्त ! वायु: पशुरासीत्तेनायजन्त ! सूर्यः पशुरासीत्तेनायजन्त !"
'अबध्नन् पुरुषं पशुम् 'इस मन्त्र में पुरुषको ही पशु कहा गया है । वहाँ सात परिधि और इक्कीस समिधाओंकी चर्चा है -
"सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि:सप्त समिधः कृता: ।
उसके दो अर्थ किए जाते हैं - शरीरगत सात धातु ही सात परिध हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय ,पाँच कर्मेन्द्रिय,दस प्राण और एक मन -ये इक्कीस समिधाएँ हैं ,इनको लेकर 'आत्मा'रूपी पुरुषसे देवताओंने 'शरीर यज्ञ'किया । इन सबके सहयोगसे ही मानव शरीरकी सम्यक् सृष्टि हुई ! दूसरा अर्थ सङ्गीत -यज्ञपरक होता है । इसमें सात स्वर ही सात परिधि और इक्कीस मूर्छनाऐं ही समिधा हैं । नाद ही वहाँ पशु है । इनसे सङ्गीत यज्ञ सम्पन्न होता है ।
इसी प्रकार यदि विवेकको साथ रखते हुए वेदार्थपर विचार किया जायेगा तो वेद भगवान् ही ऐसी सामग्री प्रस्तुत कर देंगेव,जिससे सत्य अर्थका भान हो जाय । जहाँ द्वय अर्थक शब्दोंके कारण भ्रम होनेकी सम्भावना हो सकती है , वहाँ बहुतेरे स्थलोंपर स्वयं वेदने ही अर्थका स्पष्टीकरण कर दिया -
"धाना धेनुरभवद् वत्सोऽस्यास्तिलः !"(अथर्ववेद १८/४/३२)
अर्थात् -'धान ही धेनु (गाय) है और तिल ही उसका बछड़ा हुआ है । '
"अश्वा: कणा गावस्ताण्डुला मशकास्तुषा: । श्याममयोऽस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम् !! (अथर्ववेद ११/३/५-७)
अर्थात् 'चावलके कण ही अश्व हैं । चावल ही गौ हैं । भूसी ही मशक है । चावलोंका जो श्यामभाग है ,वह मांस है और लालभाग ही रुधिर है !'
इन सब प्रमाणोंसे ये सिद्ध है कि हवन-प्रकरणमें जहाँ कहीं भी अश्व ,गौ,अजा ,मांस ,अस्थि और मज्जा आदि शब्द आते हैं ,उनसे अन्नका ही ग्रहण होता है ; पशुओं और उनके अवयवोंका नहीं । 'शतपथ ब्राह्मण'आदि में भी ऐसे स्थलोंका स्पष्टीकरण किया गया है -
" यदा पिष्टान्यथ लोमानि भवन्ति । यदाप आनयत्यथ त्वग् भवति । यदा स यौत्यथ मांसं भवति । संतत इव हि तर्हि भवति । संततमिव हि मांसम् । यदा शृतोऽथास्थि भवति । दारुणमित्यस्थि । अथ यदुद्वायसन्नभिधारयति तं मज्जानं ददाति । एषा सा संपद् यदाहुः पाक्तः पशुरिति !" (शतपथ ब्राह्मण )
- 'केवल पीसा हुआ सुखा आटा 'लोम' है ! पानी मिलानेपर वह 'चर्म' कहलाता है । गूंथने पर उसकी 'मांस' संज्ञा होती है । तपाने पर उसीको 'अस्थि ' कहते हैं । घी डालने पर इसीका 'मज्जा' नाम होता है । इस प्रकार पककर जो पदार्थ बनता है,उसका नाम 'पाक्तःपशु 'होता है ।
ऐतरेय ब्राह्मणमें भी इसी तरहका स्पष्टीकरण देखा जाता है -' स वा एष पशुरेवालभ्यते यतपुरोडाशस्तस्य । यानि किंशारूपाणि तानि रोमाणि । ये तुषा: सा त्वक् । ये फलीकरणास्तद् असृग् यत्पिष्टं त्नमांसम् । एष पशूनां मेधेन यजते ।' इस मन्त्रमें पुरोडाशके अंतर्गत जो अन्नके दाने हैं ,उन्हें अन्नमय पशुका रोम ,भूसीको त्वचा ,टुकड़ोंको सींग और आटेको मांस नाम दिया गया है । '
अथर्ववेदके अनुसार व्रीहि और यव क्रमशः प्राण और अपान हैं ।
"प्राणापानौ व्रीहियवौ अनड्वान् प्राण उच्यते ! (अर्थववेद !११/४/१३)
उपरोक्त मन्त्रोंसे सिद्ध है कि वैदिक यज्ञमें पशुमांस से होम नहीं किया जाता है अपितु अन्नमय पुरोडाश का नाम ही मांस और पशु है ।
मीमांसा सूत्रमें तो पशुहिंसा और मांस-पाकका स्पष्टतः निषेध मिलता है -
"मांसपाकप्रतिषेधश्च तद्वत् (१२/२/२)
: 'यज्ञमें जैसे पशुहिंसाका निषेध है ,उसी प्रकार मांस पाकका भी निषेध है !'
"धेनुवच्च अश्वदक्षिणा"(मीमांसा ०१०/३/६५)
'गौकी भाँती घोडा भी यज्ञमें दक्षिणाके लिए ही उपयोग में लाया जाता है । '
"अपि वा दानमात्रं स्याद् भक्षशब्दानभिसम्बन्धनात् !"(मीमांसा०१०/७/१५)
'अथवा वह केवल दान मात्रके लिए ही है ; क्योंकि गौकी भाँती अश्व के लिए भी कहीं 'भक्षण' शब्द नहीं आया है !' (तात्पर्य यह है कि मनुष्योंके भोजनमें केवल अन्नका ही उपयोग होताहै ,गौ और अश्व आदि का नहीं )
आश्वलायनसूत्रमें स्पष्ट कहा गया है कि हवन सामग्री में मांस वर्जित होती है -'होमियं च मांसवर्जम् !'
कात्यायन का मत है -
'आहवनीये मांसप्रतिषेध: !'
उपर्युक्त प्रमाणोंसे सिद्ध है कि यज्ञमें मांसका उपयोग कभी शिष्टपुरुषों द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ ।
कुछ लोगोंने ये भ्रम फैलाया कि वैदिक ऋषि अतिथिको गौ मांस खिलाते थे । 'गोघ्नोऽतिथि: ' मन्त्र का उदाहरण देते हैं ।
इसका अर्थ भ्रमवश ऐसा मानने लगे हैं कि अतिथिके किए गाय मारी जाती थी ;परन्तु ऐसी नहीं है । 'हन्' धातु का प्रयोग हिंसा और गति अर्थ में होता है । गति के भी ज्ञान ,गमन और प्राप्ति आदि अनेक अर्थ हैं । इनमेंसे प्राप्ति अर्थको लेकर ही यहाँ 'गोघ्न' का प्रयोग होता है । वह अतिथि जिसको गौकी प्राप्ति हो-जिसे गाय दी जाय वह 'गोघ्न' कहलाता है । व्याकरणके आदि आचार्य महर्षि पाणिनिने अपने एक सूत्रद्वारा इसी अभिप्रायकी पुष्टिकी है ! वह सूत्र है -'दाशगोघ्नौ सम्प्रदाने' (३/४/७३)
इसके द्वारा सम्प्रदाने अर्थ में 'दाश' और 'गोघ्न' शब्द सिद्ध होते हैं । यदि यहाँ चतुर्थीमात्र ही अभीष्ट होता -अर्थात् अतिथि के उद्देश्यसे गाय को मारना ही सूचित करना होता तो 'सम्प्रदाने ' न कहकर 'तस्मै' इस विभक्तिप्रतिरुपक अव्ययका ही प्रयोग कर देते ; परन्तु ऐसा न करके 'सम्प्रदाने' लिखा है ; इससे यहाँ दानार्थकी अभिव्यक्ति सूचित होती है । अतः जिसे गाय दी जाए ,उस अतिथि को ही 'गोघ्न' कहते हैं । पूर्वकाल में अतिथि को गौ दान करने की परिपाठी थी । आज भी प्राचीन परम्परा के अनुसार विवाहमें घरमें पधारे हुए वर को आतिथ्यके लिए गोदान की जाती है ।
डॉ बी०आर० अम्बेडकर ने अपकी पुस्तक 'अछूत कौन ?और वे अछूत कैसे बने ? में लिखते हैं हिन्दू जिनमें ब्राह्मण और गैरब्रह्मण दोनों ही आते हैं गाय ,बैल ,बछड़े और सांडके मांस को खाते थे । मधुपर्क,गोघ्नोऽतिथि शब्दोंसे यही सिद्ध करते हैं कि अतिथि को गौमांस दिया जाता था ।
ऊपर गोघ्नोऽतिथि का अर्थ कर चुका हूँ -जिस अतिथि को गाय प्रदान की जाय ।
अब मधुपर्क - तीन भाग दही,एक भाग शहद और एक भाग घीको काँसेके पात्रमें रखनेपर उसकी 'मधुपर्क' संज्ञा होती है । मधुपर्क नाम ही मधुर पदार्थोंका सम्पर्क सूचित करता है । इसमें गौमांस की तो गन्ध भी नहीं है ।
डॉ अम्बेडकरने और कम्युनिस्ट इतिहासकारोंने वेदोंमें "औक्ष" और "ऋषभ" शब्द देखकर गौ और सांडके मांसकी वीभत्स कल्पना कर ली । जबकि ऊपर ये बता चुका हूँ कि वेदोंमें किसी भी तरह के मांस खाने का उल्लेख नहीं ।
आयुर्वेदमें जो मांस प्रधान औषधियां हैं ,उन्हें द्विजोंने कभी स्वीकार नहीं किया ; अतएव चरकने लिखा है -द्विजोंकी पुष्टिके लिए तो मिश्रीयुक्त घी और दूध ही औषधि है !
"द्विजानामोषधीसिद्धिं घृतं मांसविवृद्धये । सितायुक्तं प्रदातव्यं गव्येन पयसा भृशम् !! (चरक चि०८/१४९)
मांस तो यक्ष,राक्षस और पिशाचोंका भोजन है । (यक्षरसः पिशाचान्नम् ')
वैदिक ग्रन्थों में बहुत से पशु-पक्षियोंके नाम वाले औषध देखे जाते हैं । उदाहरण के लिए वृषभ( ऋषभकन्द),श्वान (ग्रन्थिपर्ण),मार्जार (चित्ता) ,अश्व (अश्वगन्धा),अज (अजमोदा) ,सर्प (सर्पगन्धा ),मयूरक (अपामार्ग),मयुरी(अजमोदा),कुक्कुटी(शाल्मली),मेष(जीव शाक),नकुल(नाकुली बूटी) ,गौ (गौलोमी),खर (खरपर्णिनी ),काक(काकमाची),वाराह(वाराहीकन्द),महिष (गुग्गुल) आदि शब्द दृष्टव्य हैं ।
वेदोंमें जहाँ कहीं भी 'औक्षण' या 'ऋषभ ' शब्द आया है डॉ अम्बेडकरने सांड या बैल अर्थ किया है जो कि असङ्गत है ।
"औक्ष" और "ऋषभक" नामकी औषधि हैं । जैसे "प्रस्थं कुमारिकामांसम् ' के अनुसार एक सेर कुमारी कन्या के मांस की कल्पना कर ली जाय । उसी प्रकार बैलकी कल्पना कर ली गयी । ये तो अवैदिक असुरोंके दिमागकी ही उपज हो सकती है । "औक्षण" शब्द का दूसरा अर्थ होता है उबला हुआ अन्न !
उदाहरणके लिए बृहदारण्यकोपनिषद्के (६/४/१८)वें मन्त्रपर दृष्टिपात करें । इस मन्त्र में आये 'औक्षण' और 'आर्षभ' शब्द और मांसौदन शब्द का अर्थ गौ-बछड़े का मांस अर्थ किया है जबकि ये दोनों ही औषधियां हैं ।
ओदन कहते हैं खिचड़ीको और इस मन्त्र में 'औक्षण' और 'आर्षभ' औषधि मिलाकर खिचड़ी खाने का उल्लेख है । प्रायः मूँग या उड़दकी दाल मिलाकर ही खिचड़ी बनती है । मूँगकी खिचड़ी को 'मुद्गौड़न' और उड़दमिश्रित खिचड़ीको 'माषौदन' कहते हैं । यहाँ मांसौदन का अर्थ 'औक्षण' और 'आर्षभ' औषधिके गूदेके मिश्रण को कहते हैं ।
"अपक्वे चूतफले स्नाय्वस्थिमज्जान: सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्के त्वाविर्भूता उपलभ्यन्ते "
अर्थात् - 'आमके कच्चे फलमें सूक्ष्म होनेके कारण स्नायु,हड्डी और मज्जा नहीं दिखायी देतीं ; परन्तु पकने पर ये सब प्रकट हो जाती हैं । '
- यह सबको जानना चाहिए फलोंके गूदेको 'मांस' छाल को 'चर्म' गुठली को 'अस्थि' मेदाको 'मेद' और रेशाको 'स्नायु' कहते हैं ।
इसलिए उपरोक्त मन्त्र का अर्थ होगा -
"अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विगीत: समतिंगम: शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायते सर्वान् वेदाननुब्रवीत सर्वमायुरियादिति मा ँ् सौदनं पाचयित्वा संर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयित वा औक्षण वार्षभेण वा ।" (बृहदारण्यकोपनिषद् ६/४/१८)
अर्थात् - जो पुरुष यह चाहता हो मेरा पुत्र जगत् में विख्यात पण्डित हो और विद्वानोंकी सभामें निर्भीक होकर प्रगल्भतापूर्वक संस्कृत वाणी बोलने वाला हो,वेद-शास्त्रोंको पढ़ने वाला तथा वेदके रहस्योंको जानने वाला हो, पूर्णायु -सौ वर्ष तक जीनेवाला हो,ऐसी सन्तान चाहने वाले माता-पिताको चाहिए कि 'उक्षा' (सोम औषधि) और 'ऋषभक' औषधि के गूदेको घृतसिक्त करके गौके दुग्धसे खीर पकायें और उसका सेवन करें । ऐसा करने से बलवान् और मेधावी पुत्र उत्पन्न होता है !'
यहाँ गौमांस या बछड़े की मांस की वीभत्स कल्पना करना तो असुरोंकी ही बुद्धिको ग्राह्य होगा ।
जब वेदोंने गौ माता को 'अघ्न्या' (जिसका वध न किया जाए) कहा है फिर वेद भगवान् गौहत्या का आदेश कैसे दे सकते हैं । जिस प्रकार गौ माता 'अघ्न्या' हैं उसी प्रकार वृषभ भी अघ्न्या हैं ।
"गवां यः पतिरघन्य:"(अथर्ववेद ९/४/१७)
'बैल गाय का पति 'अघ्न्या' हैं ।
"अघ्न्यानां नः पोषे कृणोतु "(अथर्व०९/४/२)
"अघ्न्या" की व्याख्या -
जो न तो स्वयं किसीको कष्ट पहुंचाती है और न जो अन्य किसीके द्वारा कभी मारी पीटी या क्लेश पहुंचाई जाने योग्य है अर्थात् पूज्या ,वन्द्या और श्रद्धेया है -इस अर्थ में उज्ज्वलदत्त आदिने 'न हन्यते कैर्वापि','न वा हन्ति दातारम् ','ग्रहितारं वा ' इस व्युत्पत्तिद्वारा 'अघ्न्यादयश्च ' (उणादि ४/११२) सूत्रकी व्याख्या में यक् प्रत्ययसे इस 'अघ्न्या' पदकी साधुता स्वीकार की है ।
-'यक: कित्वात् ','गमहन०इत्युपधालोपे 'हो हन्ते: 'इति कुत्वेन हस्य घ: !
'निरुक्तिमें' भी श्रीयास्कने (११/४३में) स्वयं ही अहन्तव्या भवतीत्यघघ्नीति वा अघ्न्या ' कहकर इसकी व्याख्या लिखी है । निरुक्त निघण्टु २/११/१ की व्यख्यामें देवराज यज्वाने आगे लिखा है -
"अघस्य दुर्भिक्षादेर्हन्त्री वा अहन्तव्या वेति अघ्न्या"
महाभारत शांतिपर्व (२६२/४७)में भीष्मने सुस्पष्ट रूपसे व्युत्प्त्ति करते हुए कहा था -- 'श्रुतियों में गौओंको अघ्न्या (अवध्य) कहा गया है ,फिर कौन उन्हें मारने का विचार कर करेगा ? जो पुरुष गाय और बैलोंको मारता है ,वह महान् पाप करता है -
"अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति ।
महाच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः !!
उपरोक्त विवरण से ज्ञात होता हैं वेदोंमें मांस भक्षण और गौ मांस का मिथ्या अरोप लगाया है जबकि वेद -
"मा हिंस्यात् सर्वाभूतानि " की घोषणा करते हैं ।
डॉ अम्बेडकरने बौध्द ग्रन्थ 'संयुक्त निकाय (१११-१-९)
का प्रमाण देते हुए कहा है
भगवान् बुद्धने कौशल नरेश पसेंडी के यज्ञसे पांच सौ सांड ,पांच सौ बछड़े मुक्त कराये थे इससे उस समय यज्ञमें गौहत्या होती थी ।'
इस प्रश्नका उत्तर है गौतम बुद्धका निर्वाण पांचवी शती ई पू में हुआ था उनके निर्वाणके ५००-६०० वर्ष बाद बौद्ध ग्रन्थ लिखे गए तो उन ग्रन्थोंमें बुद्धकाल की घटनाकी कितनी सत्यता है ? आप स्वयं विचार कीजिए । बौद्ध जो कि हिन्दू धर्म से द्वेष रखते थे । ये प्रयत्न सदैव करते रहे कि हिंदुओंको निकृष्ट और बौद्धोंको श्रेष्ठ सिद्ध किया जा सके । तथाकथिक महान् अशोक को बौद्धोंने महिमामण्डित किया उसी अशोक को बौद्धोंने चण्डाशोक कहा था जब वो वैदिक धर्म का पालन करता था तब वो दुष्ट राजा था ( चण्ड -खूंखार) । और जब अशोक बौद्ध बन गया तो वो चण्डाशोक से धर्माशोक बन गया ( धर्म का स्वरूप ) ! जबकि अशोकवर्धन मौर्य्य और धर्माशोक दोनों ही अलग अलग राजा थे और दोनों समकालीन थे । अशोकवर्धन मगध सम्राट था तो धर्माशोक कश्मीर का गोनन्द वंश का राजा था ।
ये विवरण बौद्धोंका वैदिक धर्मके द्वेषका प्रमाण है ।
अब बात करते हैं यज्ञ की तो सांडों और बैलोंकी बलि उतनी ही सत्य है जितनी सत्य सीता जी दशरथकी पुत्री और रामकी बहन ।
भगवान् बुद्ध कहते थे - वो ही दशरथ पुत्र श्रीराम थे और यशोधरा देवी ही सीता थीं ,दशरथ ही शुद्धोदन थे और माया देवी ही कौसल्या थीं ।
गौतम बुद्धके निर्वाणके सैकड़ों वर्ष बाद ( कम्युनिस्ट इतिहासकार ४८३ ई पू मानते हैं और एथेंसके इतिहाससे ज्ञात होता है १८०७ ई पू में निर्वाण हुआ ) हिंदुओंसे द्वेषके कारण बौद्धोंने "दशरथ जातक" , "अनामकम जातक और "श्यामजातक" ग्रन्थोंकी रचना की ।जो रामायण के विकृत रूप हैं इन बौद्ध ग्रन्थों में जम्बूद्वीप के राजा दशरथ के तीन सन्तान बताईं गयीं हैं राम (लामन पण्डित ) लक्ष्मण (लक्खन पण्डित) और सीता । तीनो बहन भाई थे किन्तु रामने अपनी बहन सीता से विवाह किया । इस तरह के विकृत ग्रन्थ सिद्ध करते हैं कि बौद्ध हिंदुओं से कितना द्वेष इ
रखते थे ।
ये सत्य है बुद्धकाल में हिंसक यज्ञ होते थे ,ये भी सत्य है कि बुद्ध ही श्रीराम थे ।
किन्तु उन यज्ञोंमें सांड और बछड़े की बलि दी जाती थी ये उसी प्रकार झूठ है द्वेष मात्र है जितना झूठ और द्वेष ये कि सीता दशरथकी पुत्री थी और श्रीरामकी बहन थीं ।
वरुण पाण्डेय
कृष्णानुरागी वरुण

No comments:

Post a Comment