Most Americans have no idea that ancient cities with advanced architectures once dotted the ancient North American landscape. It is estimated that there once existed over 200,000 cities, structures and mounds across the continent.
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Friday, July 29, 2016
Life after Life - A truth -Video - Dr Moody ,MD ,USA -A Research
Life after Life-A True story-
In Life After Life Raymond Moody investigates case studies of people who experienced clinical death and were subsequently revived. This classic exploration of life after death started a revolution in popular attitudes about the afterlife and established Dr. Moody as the world's leading authority in the field of near-death experiences.
In Life After Life Raymond Moody investigates case studies of people who experienced clinical death and were subsequently revived. This classic exploration of life after death started a revolution in popular attitudes about the afterlife and established Dr. Moody as the world's leading authority in the field of near-death experiences.
Some children can remember exact & verifiable details of their prior life they never could have come to know in this their current child life. These details can be objectively and independently confirmed. Remarkably & quite biologically enigmatic: Some of them have birth marks and birth defects at very same locations as the lethal injury causing their often abrupt and violent past life death. Eg. Born with 5 missing fingers after a prior life accident where they were cut off... Birthmarks at the exact location where they got gunshot wounds in their prior life, which
In "Remembrances of Lives Past," an article that appeared in the New York Times this weekend, Newsweek's religion editor Lisa Miller takes a look at our nation's growing belief in reincarnation. According to data released by Pew Forum on Religion and Public Life, a quarter of Americans believe in reincarnation (interestingly, according to the Times piece, women are more likely to believe in reincarnation than men,
Sunday, July 24, 2016
सनातन धर्म का रक्षक महान सम्राट पुष्यमित्र शुंग।
सनातन धर्म का रक्षक महान सम्राट पुष्यमित्र शुंग।
मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र महान अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया।
आचार्य चाणक्य ने भी जिस अखंड भारत के निर्माण हेतु आजीवन संघर्ष किया उसका लाभ भी सनातन धर्म को न मिल पाया, आचार्य चाणक्य जीवन भर चन्द्र्गुप्य मौर्य को संचालित करते रहे, परन्तु आचार्य चाणक्य के स्वर्गवास के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य जैन बन गया, और जैन सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार में ही जीवन व्यतीत किया, अंत में संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हुआ । चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार हुआ जो आगे जाकर मखली गौशाल नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ, आजीविक सम्प्रदाय भी पूर्णतया वेद-विरोधी था, अर्थात बिन्दुसार ने भी आजीवन आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार हेतु ही सारा जीवन लगाया ।
बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र चंड-अशोक गद्दी पर बैठा, जिसने वैदिक धर्म पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाए, यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाये, गुरुकुलों को बोद्ध-विहार में परिवर्तित किया, मन्दिरों को नष्ट किया, शास्त्रों में हेर-फेर भी करवाए, अधिक से अधिक सनातन धर्मियों को बोद्ध सम्प्रदाय में तलवार के जोर पर और धन आदि का लालच देकर भी बोद्ध सम्प्रदाय की जनसंख्या बढाई । अहिंसा के पथ पर भी अशोक को वास्तविकता और आवश्यकता से कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा कर महिमामंडित किया गया, जबकि अशोक की हिंसा और अहिंसा के सत्य का एक पहलु तो यह भी है कि अशोक के जन्मदिवस पर एक बार एक जैन आचार्य ने अशोक को एक चित्र भेंट किया जिसमे महात्मा बुद्ध को जैन महावीर के चरण स्पर्श करते हुए दिखाया गया, क्रोधवश छद्म अहिंसावादी चंड अशोक ने 3 दिन के भीतर ही 14000 जैन आचार्यों की हत्या करवाई ।
अहिंसा का पथ यह भी कैसा कि कलिंग विजय के बाद शस्त्र त्याग दिया, यह तो कुछ ऐसी बात हुई कि आपने कोई परीक्षा देते हुए सभी प्रश्नों के उत्तर लिख दिए अब आप कह रहे हैं कि मैं आगे किसी भी प्रश्न का उत्तर नही लिखूंगा… जीवनभर हिंसा करके अंतिम अविजित स्थान पर विजय पाकर आपने शस्त्र त्यागे और उसे त्याग की परिभाषा दी जाती है । अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट बृहदरथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था । जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।
सम्राट बृहदरथ के शासनकाल में ग्रीक शासक MENINDER जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद और मनिन्द्र कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया। सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए।(जैसे कि आजकल के मस्जिद-मदरसों में हो रहा है)
दूसरी तरफ़ सम्राट बृहदरथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट बृहदरथ ने मना कर दिया (आजकल की सरकारें भी ऐसा नही होने देतीं)
किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत सेनापति पुष्यमित्र शुंग, सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।
पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहा सुनी हो गई। सम्राट बृहदरथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया। सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली।
मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया।
बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ, पुन: ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। भय से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया, किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी, जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।
उपरोक्त चित्र भारत में कई स्थानों पर पाए जाते हैं जो कि तत्कालीन वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा बोद्ध धर्म पर विजय के रूप में स्थापित किये गये, जिसमे बोद्ध सम्प्रदाय का प्रतीक हाथी है जिस पर सनातन धर्म का प्रतीक सिंह विजय प्राप्त करके उसे नियंत्रित करता हुआ दिखाई दे रहा है । पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया। साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा चलती रही। पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह-शासक नियुक्त कर रखा था। और उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार जी सेना के संचालक भी थे। इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। पुष्यमित्र का शासनकाल पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। अपने विजय अभियानों से उसने मगध की सीमा का बहुत विस्तार किया।विदर्भ को जीतकर और यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र शुंग मगध साम्राज्य के विलुप्त गौरव का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार ‘साकल’ (सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या में प्राप्त उसके शिलालेख से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मध्यदेश पर उसका शासन भली-भाँति स्थिर था। विदर्भ की विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गयी थी। इस प्रकार पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्ष (185-149 ई. पू.) तक राज्य किया। भारतीय इतिहासकारों ने पुष्यमित्र शुंग के साथ बहुत अन्याय किया है, महान इतिहासकार KOENRAAD ELST का कहना है कि अशोक से अधिक धर्म-निरपेक्ष पुष्यमित्र शुंग था, जिसने वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार तो किया परन्तु शांतिप्रिय बौद्धों को भी जीवन यापन की समस्त स्वत्रंता प्रदान की और उन्हें परेशान नही किया।
मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र महान अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया।
आचार्य चाणक्य ने भी जिस अखंड भारत के निर्माण हेतु आजीवन संघर्ष किया उसका लाभ भी सनातन धर्म को न मिल पाया, आचार्य चाणक्य जीवन भर चन्द्र्गुप्य मौर्य को संचालित करते रहे, परन्तु आचार्य चाणक्य के स्वर्गवास के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य जैन बन गया, और जैन सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार में ही जीवन व्यतीत किया, अंत में संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हुआ । चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार हुआ जो आगे जाकर मखली गौशाल नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ, आजीविक सम्प्रदाय भी पूर्णतया वेद-विरोधी था, अर्थात बिन्दुसार ने भी आजीवन आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार हेतु ही सारा जीवन लगाया ।
बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र चंड-अशोक गद्दी पर बैठा, जिसने वैदिक धर्म पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाए, यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाये, गुरुकुलों को बोद्ध-विहार में परिवर्तित किया, मन्दिरों को नष्ट किया, शास्त्रों में हेर-फेर भी करवाए, अधिक से अधिक सनातन धर्मियों को बोद्ध सम्प्रदाय में तलवार के जोर पर और धन आदि का लालच देकर भी बोद्ध सम्प्रदाय की जनसंख्या बढाई । अहिंसा के पथ पर भी अशोक को वास्तविकता और आवश्यकता से कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा कर महिमामंडित किया गया, जबकि अशोक की हिंसा और अहिंसा के सत्य का एक पहलु तो यह भी है कि अशोक के जन्मदिवस पर एक बार एक जैन आचार्य ने अशोक को एक चित्र भेंट किया जिसमे महात्मा बुद्ध को जैन महावीर के चरण स्पर्श करते हुए दिखाया गया, क्रोधवश छद्म अहिंसावादी चंड अशोक ने 3 दिन के भीतर ही 14000 जैन आचार्यों की हत्या करवाई ।
अहिंसा का पथ यह भी कैसा कि कलिंग विजय के बाद शस्त्र त्याग दिया, यह तो कुछ ऐसी बात हुई कि आपने कोई परीक्षा देते हुए सभी प्रश्नों के उत्तर लिख दिए अब आप कह रहे हैं कि मैं आगे किसी भी प्रश्न का उत्तर नही लिखूंगा… जीवनभर हिंसा करके अंतिम अविजित स्थान पर विजय पाकर आपने शस्त्र त्यागे और उसे त्याग की परिभाषा दी जाती है । अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट बृहदरथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था । जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।
सम्राट बृहदरथ के शासनकाल में ग्रीक शासक MENINDER जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद और मनिन्द्र कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया। सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए।(जैसे कि आजकल के मस्जिद-मदरसों में हो रहा है)
दूसरी तरफ़ सम्राट बृहदरथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट बृहदरथ ने मना कर दिया (आजकल की सरकारें भी ऐसा नही होने देतीं)
किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत सेनापति पुष्यमित्र शुंग, सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।
पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहा सुनी हो गई। सम्राट बृहदरथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया। सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली।
मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया।
बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ, पुन: ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। भय से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया, किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी, जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।
उपरोक्त चित्र भारत में कई स्थानों पर पाए जाते हैं जो कि तत्कालीन वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा बोद्ध धर्म पर विजय के रूप में स्थापित किये गये, जिसमे बोद्ध सम्प्रदाय का प्रतीक हाथी है जिस पर सनातन धर्म का प्रतीक सिंह विजय प्राप्त करके उसे नियंत्रित करता हुआ दिखाई दे रहा है । पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया। साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा चलती रही। पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह-शासक नियुक्त कर रखा था। और उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार जी सेना के संचालक भी थे। इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। पुष्यमित्र का शासनकाल पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। अपने विजय अभियानों से उसने मगध की सीमा का बहुत विस्तार किया।विदर्भ को जीतकर और यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र शुंग मगध साम्राज्य के विलुप्त गौरव का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार ‘साकल’ (सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या में प्राप्त उसके शिलालेख से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मध्यदेश पर उसका शासन भली-भाँति स्थिर था। विदर्भ की विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गयी थी। इस प्रकार पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्ष (185-149 ई. पू.) तक राज्य किया। भारतीय इतिहासकारों ने पुष्यमित्र शुंग के साथ बहुत अन्याय किया है, महान इतिहासकार KOENRAAD ELST का कहना है कि अशोक से अधिक धर्म-निरपेक्ष पुष्यमित्र शुंग था, जिसने वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार तो किया परन्तु शांतिप्रिय बौद्धों को भी जीवन यापन की समस्त स्वत्रंता प्रदान की और उन्हें परेशान नही किया।
Tuesday, July 5, 2016
Battle of Herat -Gurjar Vs Persian
Battle of Herat
Gurjar Vs Persian
World Famous Battle of Herat
Gurjar Vs Persian
Gurjar Samrat Khushnavaz Hoon
Date 484
Location Herat, Afghanistan
Result Decisive Hephthalite victory.
Belligerents
Hephthalite(Hoon) Empire; Sassanid Empire
Commanders and leaders
Khushnavaz Peroz I †
Mihran †
Strength
Unknown 100,000 soldiers[1]
Casualties and losses
Unknown Heavy
The Battle of Herat was a large scale military confrontation that took place in 484 between an invading force of the Sassanid Empire composed of around 100,000 men[1] under the command of Peroz I and a smaller army of the Hun Empire of Gurjar under the command of Khushnavaz Hoon. The battle was a catastrophic defeat for the Sassanid forces who were almost completely wiped out. Peroz, the Sassanid king, was killed in the action.
In 459, the Hoon(Clan Of Gujjar) occupied Bactria and were confronted by the forces of the Sassanid king, Hormizd III. It was then that Peroz, in an apparent pact with the Hephthalites,[2] killed Hormizd, his brother, and established himself as the new king. He would go on to kill the majority of his family and began a persecution of various Christian sects in his territories.
Peroz quickly moved to maintain peaceful relations with the Byzantine Empire to the west. To the east, he attempted to check the Hephthalites, whose armies had begun their conquest of eastern Iran. The Romans supported the Sassanids in these efforts, sending them auxiliary units. The efforts to deter the Hephthalite expansion met with failure when Peroz chased their forces deep into Hephthalite territory and was surrounded. Peroz was taken prisoner in 481 and was made to deliver his son, Kavadh, as a hostage for three years, further paying a ransom for his release.
It was this humiliating defeat which led Peroz to launch a new campaign against the Hephthalites.
The battle::
In 484, after the liberation of his son, Peroz formed an enormous army and marched northeast to confront the Hephthalites. The king marched his forces all the way to Balkh where he established his base camp and rejected emissaries from the Hunnic king Khushnavaz. Peroz's forces advanced from Balkh to Herat. The Huns, learning of Peroz's way of advance, left troops along his path who proceeded to cut off the eventual Sassanid retreat and surround Peroz's army in the desert around the city of Herat. In the ensuing battle, almost all of the Sassanid army was wiped out. Peroz was killed in the action and most of his commanders and entourage were captured, including two of his daughters. The Gurjar forces proceeded to sack Herat before continuing on to a general invasion of the Sassanid Empire.
Aftermath
The Huns invaded the Sassanid territories which had been left without a central government following the death of the king. Much of the Sassanid land was pillaged repeatedly for a period of two years until a Persian noble from the House of Karen, Sukhra, restored some order by establishing one of Peroz's brothers, Balash, as the new king. The Hunnic Gurjar menace to Sassanid lands continued until the reign of Khosrau I. Balash failed to take adequate measures to counter the Hephthalite incursions, and after a rule of four years, he was deposed in favor of Kavadh I, his nephew and the son of Peroz. After the death of his father, Kavadh had fled the kingdom and took refuge with his former captors, the Hephthalites, who had previously held him as a hostage. He there married one of the daughters of the Hunnic king, who gave him an army to conquer his old kingdom and take the throne.The Sassanids were made to pay tributes to the Hephthalite Gurjar Empire until 496 when Kavadh was ousted and forced to flee once again to Hephthalite territory. King Djamasp was installed on the throne for two years until Kavadh returned at the head of an army of 30,000 troop and retook his throne, reigning from 498 until his death in 531, when he was succeeded by his son, Khosrau I.
References:
^ a b c d e Heritage World Coin Auction #3010. Boston: Heritage Capital Corporation, 2010, pp. 28
^ a b Frye, 1996: 178
^ a b c Dani, 1999: 140
^ Christian, 1998: 220
Much of the information on this page was translated from its Spanish equivalent.
Bibliography
David Christian (1998). A history of Russia, Central Asia, and Mongolia. Oxford: Wiley-Blackwell, ISBN 0-631-20814-3.
Richard Nelson Frye (1996). The heritage of Central Asia from antiquity to the Turkish expansion. Princeton: Markus Wiener Publishers, ISBN 1-55876-111-X.
Ahmad Hasan Dani (1999). History of civilizations of Central Asia: Volumen III. Delhi: Motilal Banarsidass Publ., ISBN 81-208-1540-8.