"परेsपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि।
परेहि न त्वा कामये वृक्षान् वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः।।"
(अथर्ववेदः--6.45.1)
अर्थः---(मनस्पाप) हे मानसिक पाप ! (परः) दूर (अप इहि) हट जा (किम्) क्या (अशस्तानि) बुरी बातें (शंससि) तू बताता है। (परा इहि) दूर चला जा (त्वाम्) तुझको (न कामये) मैं नहीं चाहता (वृक्षान्) वृक्षों और (वनानि) वनों में (सम् चर) फिरता रह, (गृहेषु)घरों में और (गोषु) गौ आदि पशुओं में (मे) मेरा (मनः) मन है।
मन संकल्पों और विकल्पों का घर हैः--"संकल्पविकल्पात्मकं मनः।"
मन उभयात्मक होता हैः--"उभयात्मकं मनः।" (सांख्यदर्शनः-2.26) अर्थात् मन ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों के सम्पर्क में रहता है। इसलिए इसमें ज्ञान और कर्म दोनों रहते हैं।
इन दोनों में ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय में से मन प्रधान होता हैः--"द्वयोः प्रधानं मनो लोकवद् भृत्यवर्गेषु।" (सांख्यदर्शनः--2.40)
इसी में अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों है। किसी भी अच्छे अथवा बुरे कामों की शुरुआत मन से ही होती है। "एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।" एक मन को यदि अपने वश में कर लिया जाये तो सारी बुराइयाँ मिट जाएँगी, इसको खुला छोड देने से सारी आ जाती है।
इसलिए जब भी पूजा-पाठ, हवन-संध्यादि करें तो परमात्मा से मन की पवित्रता माँगे। यदि मन पवित्र हो गया तो समझिए आपकी मनःकामना पूर्ण हो गई, क्योंकि जिसका मन पवित्र है उसी की प्रार्थना सुनी जाती है। अपवित्र मन को तो इस संसार में माता-पिता और गुरु भी नहीं चाहते हैं। अपने आपको बालक बना लीजिए, इसका अभिप्राय है कि मन पवित्र कर लीजिए, बालक पवित्र ही होता है। इसीलिए हमारे समाज में कहा जाता है कि बालक परमात्मा का रूप होता है। परमात्मा बालक को अधिक चाहते हैं, क्योंकि बालक पूर्णता समर्पित होता है। वैसा समर्पण हमारे अन्दर आ जाए तो जीवन सार्थक हो जाए।
इस मन्त्र में बुरे मन को वनों में, जंगलों में, वृक्षों में भाग जाने के लिए कहा है। इसका अभिप्राय यही है कि बुरा मन इन घनघोर वनों में भटकता रहता है, किन्तु पवित्र मन सदैव भवनों में, घरों में, गौओं में रहता है।
परेहि न त्वा कामये वृक्षान् वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः।।"
(अथर्ववेदः--6.45.1)
अर्थः---(मनस्पाप) हे मानसिक पाप ! (परः) दूर (अप इहि) हट जा (किम्) क्या (अशस्तानि) बुरी बातें (शंससि) तू बताता है। (परा इहि) दूर चला जा (त्वाम्) तुझको (न कामये) मैं नहीं चाहता (वृक्षान्) वृक्षों और (वनानि) वनों में (सम् चर) फिरता रह, (गृहेषु)घरों में और (गोषु) गौ आदि पशुओं में (मे) मेरा (मनः) मन है।
मन संकल्पों और विकल्पों का घर हैः--"संकल्पविकल्पात्मकं मनः।"
मन उभयात्मक होता हैः--"उभयात्मकं मनः।" (सांख्यदर्शनः-2.26) अर्थात् मन ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों के सम्पर्क में रहता है। इसलिए इसमें ज्ञान और कर्म दोनों रहते हैं।
इन दोनों में ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय में से मन प्रधान होता हैः--"द्वयोः प्रधानं मनो लोकवद् भृत्यवर्गेषु।" (सांख्यदर्शनः--2.40)
इसी में अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों है। किसी भी अच्छे अथवा बुरे कामों की शुरुआत मन से ही होती है। "एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।" एक मन को यदि अपने वश में कर लिया जाये तो सारी बुराइयाँ मिट जाएँगी, इसको खुला छोड देने से सारी आ जाती है।
इसलिए जब भी पूजा-पाठ, हवन-संध्यादि करें तो परमात्मा से मन की पवित्रता माँगे। यदि मन पवित्र हो गया तो समझिए आपकी मनःकामना पूर्ण हो गई, क्योंकि जिसका मन पवित्र है उसी की प्रार्थना सुनी जाती है। अपवित्र मन को तो इस संसार में माता-पिता और गुरु भी नहीं चाहते हैं। अपने आपको बालक बना लीजिए, इसका अभिप्राय है कि मन पवित्र कर लीजिए, बालक पवित्र ही होता है। इसीलिए हमारे समाज में कहा जाता है कि बालक परमात्मा का रूप होता है। परमात्मा बालक को अधिक चाहते हैं, क्योंकि बालक पूर्णता समर्पित होता है। वैसा समर्पण हमारे अन्दर आ जाए तो जीवन सार्थक हो जाए।
इस मन्त्र में बुरे मन को वनों में, जंगलों में, वृक्षों में भाग जाने के लिए कहा है। इसका अभिप्राय यही है कि बुरा मन इन घनघोर वनों में भटकता रहता है, किन्तु पवित्र मन सदैव भवनों में, घरों में, गौओं में रहता है।