'मैं या स्वयं की भावना' को नष्ट किए बिना, कोई भी एक सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है।केवल एक अहंकार को समाप्त करके ही, आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। जब तक एक व्यक्ति में- 'मैं', 'मुझे', 'मेरी' की भावना बानी रहती है, तब तक वह भगवान या ब्राह्मण को नहीं जान सकता है। "लेकिन हम अहंकार को नष्ट करने की प्रक्रिया को कैसे शुरू करते हैं?" साधना एक ऐसा प्रयास है जो- “प्रतिदिन अहंकार को नष्ट करती है और भगवान का एहसास कराती है।“ भगवान की सेवा या सतसेवा आप सभी के लिए इस भावना के साथ कि- “आप सभी भगवान के सेवक हैं”, के रूप में आप सभी के लिये भगवान के द्वारा दी हुई एक भेंट हैं।“
भारतीय दर्शन में सांख्य प्रणाली का जिक्र जीवन मुक्ति के रूप में किया जाता है। इसे जिंदा रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति माना जाता है। मन की इस अवस्था में बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। मन से अहंकार मुक्त हो जाता है और इसकी स्वाभाविक मूल प्रवृत्ति स्वार्थ संबंधी गतिविधियों का पीछा करती है। फिर भी अनायास और मन की सादगी के अभ्यास के आधार पर विचारहीनता की अवस्था आती है। हमारे स्वार्थी होने की संभावना तब सबसे ज्यादा होगी, जब हम जटिल होंगे और अपने मन की सादगी को खो देंगे। भौतिकवादी होने के नाते व्यक्ति सराहना का गुण खो देता है। उदाहरण के लिए शाम की खूबसूरती में डूब जाइए। यदि व्यक्ति इसमें नहीं डूबता है तो विचारहीनता की अवस्था प्रबल नहीं हो सकती।
गीता में भी अहंकार का समर्पण करने की बात पर जोर दिया गया है। रामकृष्ण को अहसास हुआ कि अहंकार को छोड़ना नामुमकिन है, क्योंकि यह आपके अस्तित्व के साथ जीवन का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि अगर स्वार्थ हमेशा रहने के लिए है तो मैं गुलाम बनकर रहना पसंद करूंगा। मैं परमेश्वर की सेवा में खुद को समर्पित कर दूंगा। यह सोचते हुए वे 'मैं' के भाव के अधीन हो जाते हैं। टैगोर भगवान के प्रेम में गौरव प्राप्त करने का रास्ता देखते हैं। व्यापक और अधिक से अधिक संदर्भ में टैगोर 'स्व' की महिमा से अभिभूत हैं। वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व गंवाकर उसे सार्वभौम के साथ जोड़ देते हैं।
अहंकार के दो मुख्य कारण ज्ञान और धन हैं। “लेकिन कोई भी व्यक्ति यदि ये दोनों तत्व होते हुए भी, आध्यात्मिक व्यवहार जैसे- धार्मिक पूजा, शास्त्रों का अध्ययन, तीर्थयात्राओं मे सम्मिलित होना और मंत्र का जाप या ध्यान करना जैसे कार्य करता है, तो उसमें अहंकार बहुत कम होता है।“ संतों के पास इस अहंकार का केवल एक अंश होता है,क्योंकि वें उनकी "मैं या स्वयं की भावना" से मुक्त हो चुके हैं। और अब उनके पास केवल 'आध्यात्मिक भावना या भव या शुद्ध अहम' है, जोकि उन्हें अपने आध्यात्मिक अनुभव, कि- 'मैं आत्मा हूँ' की एक भावना से प्राप्त हुआ है।
अहंकार एक व्यक्ति या दूसरे व्यक्तियों के बीच अंतर पैदा करता है। प्रत्येक व्यक्ति नाम और पहचान के बिना पैदा होता है। वह भूल जाता है कि- वह ईश्वर और ब्राहमण काएक मूल तत्व है।
अपने आप से शाश्वत प्रश्न पूछने के लिये कहो कि- 'मैं कौन हूँ?'जिसका जवाब आपके अंदर ही निहित है। अपने अंदर देखो और तब आप अपने पूरे दिल से कहोगे कि- "मैं कोई नहीं हूँ।"
कुछ लोग पूछ सकते हैं कि- "यदि ईश्वर हमारे अंदर हैं, तो हम पूजा के एक समर्पित स्थान का दौरा करने के लिए क्यों जाते हैं?" जिसके लिए सर्जन साधक शांतनु नगरकट्टी इस व्याख्या को प्रस्तुत करते हैं कि- "हमारे मन को बदलने के लिए, हमें एक यात्रा करने की जरूरत होती है।"
भारतीय दर्शन में सांख्य प्रणाली का जिक्र जीवन मुक्ति के रूप में किया जाता है। इसे जिंदा रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति माना जाता है। मन की इस अवस्था में बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। मन से अहंकार मुक्त हो जाता है और इसकी स्वाभाविक मूल प्रवृत्ति स्वार्थ संबंधी गतिविधियों का पीछा करती है। फिर भी अनायास और मन की सादगी के अभ्यास के आधार पर विचारहीनता की अवस्था आती है। हमारे स्वार्थी होने की संभावना तब सबसे ज्यादा होगी, जब हम जटिल होंगे और अपने मन की सादगी को खो देंगे। भौतिकवादी होने के नाते व्यक्ति सराहना का गुण खो देता है। उदाहरण के लिए शाम की खूबसूरती में डूब जाइए। यदि व्यक्ति इसमें नहीं डूबता है तो विचारहीनता की अवस्था प्रबल नहीं हो सकती।
गीता में भी अहंकार का समर्पण करने की बात पर जोर दिया गया है। रामकृष्ण को अहसास हुआ कि अहंकार को छोड़ना नामुमकिन है, क्योंकि यह आपके अस्तित्व के साथ जीवन का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि अगर स्वार्थ हमेशा रहने के लिए है तो मैं गुलाम बनकर रहना पसंद करूंगा। मैं परमेश्वर की सेवा में खुद को समर्पित कर दूंगा। यह सोचते हुए वे 'मैं' के भाव के अधीन हो जाते हैं। टैगोर भगवान के प्रेम में गौरव प्राप्त करने का रास्ता देखते हैं। व्यापक और अधिक से अधिक संदर्भ में टैगोर 'स्व' की महिमा से अभिभूत हैं। वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व गंवाकर उसे सार्वभौम के साथ जोड़ देते हैं।
अहंकार के दो मुख्य कारण ज्ञान और धन हैं। “लेकिन कोई भी व्यक्ति यदि ये दोनों तत्व होते हुए भी, आध्यात्मिक व्यवहार जैसे- धार्मिक पूजा, शास्त्रों का अध्ययन, तीर्थयात्राओं मे सम्मिलित होना और मंत्र का जाप या ध्यान करना जैसे कार्य करता है, तो उसमें अहंकार बहुत कम होता है।“ संतों के पास इस अहंकार का केवल एक अंश होता है,क्योंकि वें उनकी "मैं या स्वयं की भावना" से मुक्त हो चुके हैं। और अब उनके पास केवल 'आध्यात्मिक भावना या भव या शुद्ध अहम' है, जोकि उन्हें अपने आध्यात्मिक अनुभव, कि- 'मैं आत्मा हूँ' की एक भावना से प्राप्त हुआ है।
अहंकार एक व्यक्ति या दूसरे व्यक्तियों के बीच अंतर पैदा करता है। प्रत्येक व्यक्ति नाम और पहचान के बिना पैदा होता है। वह भूल जाता है कि- वह ईश्वर और ब्राहमण काएक मूल तत्व है।
अपने आप से शाश्वत प्रश्न पूछने के लिये कहो कि- 'मैं कौन हूँ?'जिसका जवाब आपके अंदर ही निहित है। अपने अंदर देखो और तब आप अपने पूरे दिल से कहोगे कि- "मैं कोई नहीं हूँ।"
कुछ लोग पूछ सकते हैं कि- "यदि ईश्वर हमारे अंदर हैं, तो हम पूजा के एक समर्पित स्थान का दौरा करने के लिए क्यों जाते हैं?" जिसके लिए सर्जन साधक शांतनु नगरकट्टी इस व्याख्या को प्रस्तुत करते हैं कि- "हमारे मन को बदलने के लिए, हमें एक यात्रा करने की जरूरत होती है।"