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Wednesday, June 8, 2016

Father of Atom Maharishi Kanada- In Hindi

Atomic Theory के प्रथम जन्मदाता थे महर्षि कणाद. इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा
(It was Sage Kanada who originated the idea that anu (atom) was an indestructible particle of matter.)
सम्पूर्ण लेख
परमाणुशास्त्र के जनक आचार्य कणाद | Father of Atom Maharishi Kanada

महान परमाणुशास्त्री आचार्य कणाद पूर्व 3500 ईसापूर्व से भी पहले हुए थे गुजरात के प्रभास क्षेत्र (द्वारका के निकट) में जन्मे थे। इन्होने वैशेषिक दर्शनशास्त्र की रचना की | दर्शनशास्त्र (Philosophy) वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है| माना जाता है कि परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार सर्वप्रथम इन्होंने किया था इसलिए इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा |
It was Sage Kanada who originated the idea that anu (atom) was an indestructible particle of matter.
महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था ‘यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:‘ जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात् भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस याने आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।
परमाणु विज्ञानी महर्षि कणाद अपने वैशेषिक दर्शन के १०वें अध्याय में कहते हैं
‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय‘
अर्थात् प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है।
इसी प्रकार महर्षि कणाद कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं।
ईसा से ६०० वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन (6 सितम्बर 1766 – 27 जुलाई 1844) की संकल्पना मेल खाती है। इस प्रकार कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दिया था |
कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को ‘परमाणु‘ नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते।
वैशेषिक दर्शन में इन्होने गति के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त किया है । इसके पांच प्रकार हैं यथा :
उत्क्षेपण (upward motion)
अवक्षेपण (downward motion)
आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress)
प्रसारण (Shearing motion)
गमन (General Type of motion)
विभिन्न कर्म या motion को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है।
(१) नोदन के कारण-लगातार दबाव
(२) प्रयत्न के कारण- जैसे हाथ हिलाना
(३) गुरुत्व के कारण-कोई वस्तु नीचे गिरती है
(४) द्रवत्व के कारण-सूक्ष्म कणों के प्रवाह से
Dr. N.G. Dongre अपनी पुस्तक 'Physics in Ancient India' में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखे गए प्रशस्तपाद भाष्य में उल्लिखित वेग संस्कार और न्यूटन द्वारा 1675 में खोजे गए गति के नियमों की तुलना की है ।
महर्षि प्रशस्तपाद लिखते हैं
‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक् क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद् द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित् कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘
अर्थात् वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त प्रशस्तिपाद के भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है।
(१) वेग: निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते
The change of motion is due to impressed force (Principia)
(२) वेग निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबंध हेतु
The change of motion is proportional to the motive force impressed and is made in the direction of the right line in which the force is impressed (Principia)
(३) वेग: संयोगविशेषाविरोधी
To every action there is always an equal and opposite reaction (Principia)
वैशेषिक सूत्र में गति के साथ साथ ब्रह्माण्ड , समय तथा अणु /परमाणु का ज्ञान भी है जिसे विदेशी भी चुपके चुपके पढ़ते हैँ देखिये , ये निम्न एक पीडीऍफ़ फाइल दे रहा हूँ ये मुझे अमेरिका के एक कॉलेज की साईट पर मिली
Division of Electrical & Computer Engineering, School of Electrical Engineering and Computer Science
3101 P. F. Taylor Hall • Louisiana State University • Baton Rouge, LA 70803, USA
Space, Time and Anu (Atom) in Vaisheshika ->http://www.ece.lsu.edu/kak/roopa51.pdf
चाहे तो http://www.ece.lsu.edu/ में जाएँ और सर्च बॉक्स में kanad लिखें
विदेशी हमारी चीजें पढ़ कर हमें पढ़ा रहे है वो भी अपने नाम से और भारत के कूल डूडोँ को कैँडल मार्च से फुर्सत नहीँ है , कैसे दिन आ गये !!
दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश में आर्यों की ऐसी स्थति पर बड़ा दुःख व्यक्त किया है 
http://phys.org/news106238636.html
कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मालिक्यूल‘ लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां निश्चित रूप से कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।
ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था।
कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे जाता है। महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। दूसरी बात वे कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत् यानी विशाल व्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।
अत: कणाद कहते हैं-
‘धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम" :- वैशेषिकo दo-४
अर्थात् धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।
वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) । यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है।
इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है।
पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार) ।
इसके नामकरण के दो कारण कहे जाते हैं -
(1) प्रत्येक नित्य द्रव्य को परस्पर पृथक् करने के लिए तथा प्रत्येक तत्व के वास्तविक स्वरूप को पृथक्-पृथक् जानने के लिए इन्होंने एक "विशेष" नाम का पदार्थ माना है ;
(2) "द्वित्व", "पाकजोत्पत्ति" एवं "विभागज विभाग" इन तीन बातों में इनका अपना विशेष मत है जिसमें ये दृढ़ हैं। अभिप्राय यह है कि वैशेषिक दर्शन व्यावहारिक तत्वों का विचार करने में संलग्न रहने पर भी स्थूल दृष्टि से सर्वथा व्यवहारत: समान रहने पर भी, प्रत्येक वस्तु दूसरे से भिन्न है । इन्होंने इसके परिचायक एकमात्र पदार्थ "विशेष" पर बल दिया है, इसलिए प्राचीन भारतीय दर्शन की इस धारा को "वैशेषिक" दर्शन कहते हैं। अन्य शास्त्रों ने इस बात का विवेचन नहीं किया है। पर उक्त कुछ कारणों से इस दर्शन को "वैशेषिक दर्शन" की संज्ञा दी गई है ।
कणादकृत वैशेषिकसूत्र - इसमें दस अध्याय हैं।
वैशेषिकसूत्र के दो भाष्यग्रन्थ हैं - रावणभाष्य तथा भारद्वाजवृत्ति । वर्तमान में दोनो अप्राप्य हैं।
पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपाद, 4 वी सदी के पूर्व) वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यद्यपि इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है किन्तु यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ है।
पदार्थधर्मसंग्रह की टीका "व्योमवती" (व्योमशिवाचार्य, 8 वीं सदी),
पदार्थधर्मसंग्रह की अन्य टीकाएँ हैं- 'न्यायकंदली' (श्रीधराचार्य, 10 वीं सदी), "किरणावली" (उदयनाचार्य 10 वीं सदी), लीलावती ( श्रीवत्स, ११वीं शदी)।
पदार्थधर्मसंग्रह पर आधारित चन्द्र के 'दशपदार्थशास्त्र' का अब केवल चीनी अनुवाद प्राप्य है।
ग्यारहवीं शदी के आसपास रचित शिवादित्य की 'सप्तपदार्थी' में न्याय तथा वैशेषिक का सम्मिश्रण है।
अन्य : कटंदी, वृत्ति-उपस्कर (शंकर मिश्र 15 वीं सदी), वृत्ति, भाष्य (चंद्रकांत 20 वीं सदी), विवृत्ति (जयनारायण 20 वीं सदी), कणाद-रहस्य, तार्किक-रक्षा आदि अनेक मौलिक तथा टीका ग्रंथ हैं।
वैशेषिक तथा न्याय दोनों दर्शन ही "समानतंत्र" हैं। व्यावहारिक जगत् को यह वास्तविक मानते हैं। ये बाह्य जगत् तथा अंतर्जगत् की अवधारणा में परात्पर एवं घनिष्ठ संबंध मानते हैं। बाह्य जगत् (मानसिक) विचार पर निर्भर नहीं है, यह स्वतंत्र है।
'आत्मदर्शन' के लिए विश्व की सभी छोटी-बड़ी, तात्विक तथा तुच्छ वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना सामान रूप से आवश्यक है। इन तत्वों के ज्ञान के लिए प्रमाणों की अपेक्षा होती है। न्यायशास्त्र में प्रमाण पर विशेष विचार किया गया है, किंतु वैशेषिक दर्शन में मुख्य रूप से 'प्रमेय' के विचार पर बल दिया गया है।
यहाँ स्मरण कराना आवश्यक है कि न्याय की तरह वैशेषिक भी, लौकिक दृष्टि ही से विश्व के 'वास्तविक' तत्वों पर दार्शनिक विचार करता है। लौकिक जगत् की वास्तविक परिस्थितियों की उपेक्षा वह कभी नहीं करता, तथापि जहाँ किसी तत्व का विचार बिना सूक्ष्म दृष्टि का हो नहीं सकता, वहाँ किसी प्रकार अतीन्द्रिय , अदृष्ट, सूक्ष्म, योगज आदि हेतुओं के आधार पर अपने सिद्धांत को स्थापित करना इस धारा के दार्शनिकों का स्वभाव है, अन्यथा उनकी वैचारिक भित्तियां अंतर्विरोधी होतीं ; फलतः परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन आदि सत्ताओं का स्वीकार इस दर्शन में बराबर उपस्थित है ।
वैशेषिकों के स्वरूप, वेष तथा आचार आदि 'नैयायिकों' की तरह होते हैं; जैसे, ये लोग शैव हैं, इन्हें शैव-दीक्षा दी जाती थी। इनके चार प्रमुख भेद हैं - शैव, पाशुपत, महाव्रतधर, तथा कालमुख एवं भरट, भक्तर, आदि गौण भेद भी मिलते हैं। वैशेषिक विशेष रूप से "पाशुपत्" कहे जाते हैं। (षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरस्त की टीका न्याय-वैशेषिक मत। इस ग्रंथ से अन्य 'आचारों' के संबंध में संज्ञान हो सकता है)।
वैशेषिक मत में समस्त विश्व "भाव और अभाव" इन दो विभागों में विभाजित है। इनमें "भाव" के छह विभाग किए गए हैं- जिनके नाम हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, तथा समवाय। अभाव के भी चार उप-भेद हैं - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव तथा अन्योन्याभाव। ग्रंथों में इनके लक्षण आदि कुछ इस तरह प्राप्त होते हैं :
द्रव्य जिसमें "द्रव्यत्व जाति" हो वही द्रव्य है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं।द्रव्य गुणों का आश्रय है। पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ "द्रव्य" कहलाते हैं। इनमें से प्रथम चार द्रव्यों के नित्य और अनित्य, दो भेद हैं। नित्यरूप को "परमाणु" तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को "परमाणु" कहते हैं जिसका पुन: भाग न किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वीपरमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।
जिससे गंध हो वह "पृथ्वी", जिसमें शीत स्पर्श हो वह "जल" जिसमें उष्ण स्पर्श हो वह "तेजस्", जिनमें रूप न हो तथा अग्नि के संयोग से उत्पन्न न होने वाला, अनुष्ण और अशीत स्पर्श हो, वह "वायु", तथा शब्द जिसका गुण हो अर्थात् शब्द का जो समवायीकरण हो, वह "आकाश" है। ये ही 'पंचभूत' भी कहलाते हैं।
आकाश, काल, दिक् तथा आत्मा ये चार "विभु" द्रव्य हैं। मनस् अभौतिक परमाणु है और नित्य भी है। आज, कल, इस समय, उस समय, मास, वर्ष, आदि समय के व्यवहार का जो साधारण कारण है- वह काल है। काल नित्य और व्यापक है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आदि दिशाओं तथा विदिशाओं का जो असाधारण कारण है, वह "दिक्" है। यह भी नित्य तथा व्यापक है। आत्मा और मनस् का स्वरूप यहाँ न्यायमत के समान ही है।
गुण कार्य का असमवायीकरण "गुण" है। रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह (चिकनापन), शब्द, ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म तथा संस्कार ये चौबीस गुण के भेद हैं। इनमें से रूप, गंध, रस, स्पर्श, स्नेह, स्वाभाविक द्रवत्व, शब्द तथा ज्ञान से लेकर संस्कार पर्यंत, ये "वैशेषिक गुण" हैं, अवशिष्ट साधारण गुण हैं। गुण द्रव्य ही में रहते हैं।
कर्म क्रिया को "कर्म" कहते हैं। ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना, सिकुड़ना, फैलाना तथा (अन्य प्रकार के) गमन, जैसे भ्रमण, स्पंदन, रेचन, आदि, ये पाँच "कर्म" के भेद हैं। कर्म द्रव्य ही में रहता है।
सामान्य अनेक वस्तुओं में जो एक सी बुद्धि होती है, उसके कारण प्रत्येक घट में जो "यह घट है" इस प्रकार की ए सी बुद्धि होती है, उसका कारण उसमें रहनेवाला "सामान्य" है, जिसे वस्तु के नाम के आगे "त्व" लगाकर कहा जाता है, जैसे - घटत्व, पटत्व। "त्व" से उस जाति के अंतर्गत सभी व्यक्तियों का ज्ञान होता है।
यह नित्य है और द्रव्य, गुण तथा कर्म में रहता है। अधिक स्थान में रहनेवाला "सामान्य", "परसामान्य" या "सत्तासामान्य" या "पर सत्ता" कहा जाता है। सत्तासामान्य द्रव्य, गुण तथा कर्म इन तीनों में रहता है। प्रत्येक वस्तु में रहनेवाला तथा अव्यापक जो सामान्य हो, वह "अपर सामान्य" या "सामान्य विशेष" कहा जाता है। एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् करना सामान्य का अर्थ है।
विशेष द्रव्यों के अंतिम विभाग में रहनेवाला तथा नित्य द्रव्यों में रहनेवाला "विशेष" कहलाता है। नित्य द्रव्यों में परस्पर भेद करनेवाला एकमात्र यही पदार्थ है। यह अनंत है।
समवाय एक प्रकार का संबंध है, जो अवयव और अवयवी, गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान् जाति और व्यक्ति तथा विशेष और नित्य द्रव्य के बीच रता है। वह एक है और नित्य भी है।
किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का "अभाव" कहा जाता है। इसके चार भेद हैं - "प्राग् अभाव" कार्य उत्पन्न होन के पहले कारण में उस कर्य का न रहना, "प्रध्वंस अभाव" कार्य के नाश होने पर उस कार्य का न रहना, "अत्यंत अभाव" तीनों कालों में जिसका सर्वथा अभाव हो, जैसे वंध्या का पुत्र तथा "अन्योन्य अभाव" परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।
ये सभी पदार्थ न्यायदर्शन के प्रमेयों के अंतर्गत है। इसलिए न्यायदर्शन में इनका पृथक् विचार नहीं है, किंतु वैशेषिक दर्शन में तो मुख्य रूप से इनका विचार है। वैशेषिक मत के अनुसार इन सातों पदार्थों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने से मुक्ति मिलती है।
इन दोनों समान तत्वों में पदार्थों के स्वरूप में इतना भेद रहने पर भी दोनों दर्शन एक ही में मिले रहते हैं, इसका कारण है कि दोनों शास्त्रों का मुख्य प्रमेय है "आत्मा"। आत्मा का स्वरूप दोनों दर्शनों में एक ही सा है। अन्य विषय है - उसी आत्मा के जानने के लिए उपाय। उसमें इन दोनों दर्शनों में विशेष अंतर भी नहीं है। केवल शब्दों में तथा कहीं-कहीं प्रक्रिया में भेद है। फल में भेद नहीं है। अतएव न्यायमत के अनुसार प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से दोनों से एक ही प्रकार की "मुक्ति" मिलती है। दोनों का दृष्टिकोण भी एक ही है।
न्याय वैशेषिक मत में पृथ्वी, जल, तेजस् तथा वायु इन्हीं चार द्रव्यों का कार्य रूप में भी अस्तित्व है। इन लागों का मत में सभी कार्य द्रव्यों का नाश हो जाता है, और वे परमाणु रूप में आकाश में रहते हैं। यही अवस्था "प्रलय" कहलाती है। इस अवस्था में प्रत्येक जीवात्मा अपने मनस् के साथ तथा पूर्व जन्मों के कर्मों के संस्कारों के साथ तथा अदृष्ट रूप में धर्म और अधर्म के साथ विद्यमान रहती है। परतु इस समय सृष्टि का कोई कार्य नहीं होता। कारण रूप में सभी वस्तुएँ उस समय की प्रतीक्षा में रहती हैं, जब जीवों के सभी अदृष्ट कार्य रूप में परिणत होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। परंतु अदृष्ट जड़ है, शरीर के न होने से जीवात्मा भी कोई कार्य नहीं कर सकती, परमाणु आदि सभी जड़ हैं, फिर "सृष्टि" के लिए क्रिया किस प्रकार उत्पन्न हो?
इसके उत्तर में यह जानना चाहिए कि उत्पन्न होनेवाले जीवों के कल्याण के लिए परमात्मा में सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिससे जीवों के अदृष्ट कार्योन्मुख हो जाते हैं। परमाणुओं में ए प्रकार की क्रिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे एक परमाणु, दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाते हैं। दो परमाणुओं के संयोग से एक "द्रव्यणुक" उत्पन्न होता है। पार्थिव शरीर को उत्पन्न करने के लिए जो दो परमाणु इकट्ठे होते हैं वे पार्थिव परमाणु हैं। वे दोनों उत्पन्न हुए "दव्यणुक" के समवायिकारण हैं। उन दोनों का संयोग असमवायिकारण है और अदृष्ट, ईश्वर की इच्छा, आदि निमित्तकारण हैं। इसी प्रकार जलीय, तैजस आदि शरीर के संबंध में समझना चाहिए।
यह स्मरण रखना चाहिए कि सजातीय दोनों परमाणु मात्र ही से सृष्टि नहीं होती। उनके साथ एक विजातीय परमाणु, जैसे जलीय परमाणु भी रहता है। "द्रव्यणुक" में अणु-परिमाण है इसलिए वह दृष्टिगोचर नहीं होता। "दवयणुक" से जो कार्य उत्पन्न होगा वह भी अणुपरिमाण का ही रहेगा और वह भी दृष्टिगोचर न होगा। अतएव दव्यणुक से स्थूल कार्य द्रव्य को उत्पन्न करने के लिए "तीन संख्या" की सहायता ली जाती है। न्याय-वैशेषिक में स्थूल द्रव्य, स्थूल द्रव्य का महत् परिमाणवाले द्रव्य से तथा तीन संख्या से उत्पन्न होता है। इसलिए यहाँ दव्यणुक की तीन संख्या से स्थूल द्रव्य "त्र्यणुक" या "त्रसरेणु" की उत्पत्ति होती है। चार त्र्यणुक से चतुरणुक उत्पन्न होता है। इसी क्रम से पृथिवी तथा पार्थिव द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् उसमें गुणों की भी उत्पत्ति होती है। यही सृष्टि की प्रक्रिया है।
संसार में जितनी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं सभी उत्पन्न हुए जीवों के भोग के लिए ही हैं। अपने पूर्वजन्म के कर्मों के प्रभाव से जीव संसार में उत्पन्न होता है। उसी प्रकार भोग के अनुकूल उसके शरीर, योनि, कुल, देश, आदि सभी होते हैं। जब वह विशेष भोग समाप्त हो जाता है, तब उसकी मृत्यु होती है। इसी प्रकार अपने अपने भोग के समाप्त होने पर सभी जीवों की मृत्यु होती है।
न्यायमत - "संहार" के लिए भी एक क्रम है। कार्य द्रव्य में, अर्थात् घट में, प्रहार के कारण उसके अवयवों में एक क्रिया उत्पन्न होती है। उस क्रिया से उसके अवयवों में विभाग होता है, विभाग से अवयवी (घट) के आरंभक संयोगों का नाश होता है। और फिर घट नष्ट हो जाता है। इसी क्रम से ईश्वर की इच्छा से समस्त कार्य द्रव्यों का एक समय नाश हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि असमवायिकारण के नाश से कार्यद्रव्य का नाश होता है। कभी समवायिकारण के नाश से भी कार्यद्रव्य का नाश होता है।
इनका ध्येय है कि बिना कारण के नाश हुए कार्य का नाश नहीं हो सकता। अतएव सृष्टि की तरह संहार के लिए भी परमाणु में ही क्रिया उत्पन्न होती है और परमाणु तो नित्य है, उसका नाश नहीं होता, किंतु दो परमाणुओं के संयोग का नाश होता है और फिर उससे उत्पन्न "द्रव्यणुक" रूप कार्य का तथा उसी क्रम से "त्र्यणुक" एवं "चतुरणुक" तथा अन्य कार्यों का भी नाश होता है। नैयायिक लोग स्थूल दृष्टि के अनुसार इतना सूक्ष्म विचार नहीं करते। उनके मत में आघात मात्र ही से एक बारगी स्थूल द्रव्य नष्ट हो जाता है। कार्य द्रव्य के नाश होने पर उसके गुण नष्ट हो जाते हैं। इसमें भी पूर्ववत् दो मत हैं जिनका निरूपण "पाकज प्रक्रिया" में किया गया है।
न्याय मत की तरह वैशेषिक मत में भी बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान तथा प्रत्यय ये समान अर्थ के बोधक शब्द हैं। अन्य दर्शनों में ये सभी शब्द भिन्न भिन्न पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। बुद्धि के अनेक भेद होने पर भी प्रधान रूप से इसके दो भेद हैं - "विद्या" और "अविद्या", अविद्या के चार भेद है - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय तथा स्वप्न।
संशय तथा विपर्यय का निरूपण न्याय में किया गया है। वैशेषिक मत में इनके अर्थ में कोई अंतर नहीं है। अनिश्चयात्मक ज्ञान को "अनध्यवसाय" कहते हैं। जैसे - कटहल को देखकर वाहीक को, एक सास्ना आदि से युक्त गाय को देखकर नारिकेल द्वीपवासियों के मन में शंका होती है कि यह क्या है?
दिन भर कार्य करने से शरीर के सभी अंग थक जाते हैं। उनको विश्राम की अपेक्षा होती है। इंद्रियॉ विशेषकर थक जाती हैं और मन में लीन हो जाती है। फिर मन मनोवह नाड़ी के द्वारा पुरीतत् नाड़ी में विश्राम के लिए चला जाता है। वहाँ पहुँचने के पहले, पूर्वकर्मों के संस्कारों के कारण तथा वात, पित्त और कफ इन तीनों के वैषम्य के कारण, अदृष्ट के सहारे उस समय मन को अनेक प्रकार के विषयों का प्रत्यक्ष होता है, जिसे स्वप्नज्ञान कहते हैं।
यहाँ इतना ध्यान में रखना चाहिए कि वैशेषिक मत में ज्ञान के अंतर्गत हो "अविद्या" को रखा है और इसीलिए "अविद्या" को "मिथ्या ज्ञान" भी कहते हैं। बहुतों का कहना है कि ये दोनों शब्द परस्पर विरुद्ध है। जो मिथ्या हैं, वह ज्ञान नहीं कहा जा सकता और जो ज्ञान है, वह कदापि मिथ्या नहीं कहा जा सकता।
विद्या भी चार प्रकार की है - प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति तथा आर्ष। यहाँ यह ध्यान में रखना है कि न्याय में "स्मृति" को यथार्थज्ञान नहीं कहा है। वह तो ज्ञात ही का ज्ञान है। इसी प्रकार "आर्ष ज्ञान" भी नैयायिक नहीं मानते। नैयायिकों के शब्द या आगम को अनुमान में तथा उपमान को प्रत्यक्ष में वैशेषिकों ने अंतर्भूत किया है।
वेद के रचनेवाले ऋषियों को भूत तथा भविष्य का ज्ञान प्रत्यक्ष के समान होता है। उसमें इंद्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं रहती। यह "प्रातिभ" (प्रतिभा से उत्पन्न) ज्ञान या "आर्षज्ञान" कहलाता है। यह ज्ञान विशुद्ध अत:करणवाले जीव में भी कभी कभी हो जाता है। जैसे - एक पवित्र कन्या कहती है - कल मेरे भाई आवेंगे और सचमुच कल उसके भाई आ ही जाते हैं। यह "प्रातिभ ज्ञान" है।
प्रत्यक्ष और अनुमान के विचार में दोनों दर्शनों में कोई भी मतभेद नहीं है। इसलिए पुन: इनका विचार यहाँ नहीं किया गया।
कर्म का बहुत विस्तृत विवेचन वैशेषिक दर्शन में किया गया है। न्याय दर्शन में कहे गए "कर्म" के पाँच भेदों को ये लोग भी उन्हीं अर्थों में स्वीकार करते हैं। कायिक चेष्टाओं ही को वस्तुत: इन लोगों ने "कर्म" कहा है। फिर भी सभी चेष्टाएँ प्रयत्न के तारतम्य ही से होती हैं। अतएव वैशेषिक दर्शन में उक्त पाँच भेदों के प्रत्येक के साक्षात् तथा परंपरा में प्रयत्न के संबंध से कोई कर्म प्रयत्नपूर्वक होते हैं, जिन्हें "सत्प्रत्यय-कर्म" कहते हैं, कोई बिना प्रयत्न के होते हैं, जिन्हें "असत्प्रत्यय-कर्म" कहते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे कर्म होते हैं, जैसे पृथ्वी आदि महाभूतों में, जो बिना किसी प्रयत्न के होते हैं, उन्हें "अप्रत्यय-कर्म" कहते हैं।
इन सब बातों को देखकर यह स्पष्ट है कि वैशेषिक मत में तत्वों का बहुत सूक्ष्म विचार है। फिर भी सांसारिक विषयों में न्याय के मत में वैशेषिक बहुत सहमत है। अतएव ये दोनों "समानतंत्र" कहे जाते हैं।
इन दोनों दर्शनों में जिन बातो में "भेद" है, उनमें से कुछ भेदों का पुन: उल्लेख यहाँ किया जाता है।
(1) न्यायदर्शन में प्रमाणों का विशेष विचार है। प्रमाणों ही के द्वारा तत्वज्ञान होने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। साधारण लौकिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर न्यायशास्त्र के द्वारा तत्वों का विचार किया जाता है। न्यायमत में सोलह पदार्थ हैं और नौ प्रमेय हैं।
वैशेषिक दर्शन में प्रमेयों का विशेष विचार है। इस शास्त्र के अनुसार तत्वों का विचार करने में लौकिक दृष्टि से दूर भी शास्त्रकार जाते हैं। इनकी दृष्टि सूक्ष्म जगत् के द्वार तक जाती है इसलिए इस शास्त्र में प्रमाण का विचार गौण समझा जाता है। वैशेषिक मत में सात पदार्थं हैं और नौ द्रव्य हैं।
(2) प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द इन चार प्रमाणों को न्याय दर्शन मानता है, किंतु वैशेषिक केवल प्रत्यक्ष और अनुमान इन्हीं दो प्रमाणों को मानता है। इसके अनुसार शब्दप्रमाण अनुमान में अंतर्भूत है। कुछ विद्वानों ने इसे स्वतंत्र प्रमाण भी माना है।
(3) न्यायदर्शन के अनुसार जितनी इंद्रियाँ हैं उतने प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं, जैसे - चाक्षुष, श्रावण, रासन, ध्राणज तथा स्पार्शना किंतु वैशेषिक के मत में एकमात्र चाक्षुष प्रत्यक्ष ही माना जाता है।
(4) न्याय दर्शन के मत में समवाय का प्रत्यक्ष होता है, किंतु वैशेषिक के अनुसार इसका ज्ञान अनुमान से होता है।
(5) न्याय दर्शन के अनुसार संसार की सभी कार्यवस्तु स्वभाव ही से छिद्रवाली (घ्दृद्धदृद्वद्म) होती हैं। वस्तु के उत्पन्न होते ही उन्हीं छिद्रों के द्वारा उन समस्त वस्तुओं में भीतर और बाहर आग या तेज प्रवेश करता है तथा परमाणु पर्यंत उन वस्तुओं को पकाता है। जिस समय तेज की कणाएँ उस वस्तु में प्रवेश करती हैं, उस समय उस वस्तु का नाश नहीं होता। यह अंग्रेजी में केमिकल ऐक्शन (ड़ण्ड्ढथ्र्त्ड़ठ्ठथ् ठ्ठड़द्यत्दृद) कहलाता है। जैसे - कुम्हार घड़ा बनाकर आवें में रखकर जब उसमें आग लगाता है, तब घड़े के प्रत्येक छिद्र से आग की कणाएँ उस में प्रवेश करती हैं और घड़े के बाहरी और भीतरी हिस्सों को पकाती हैं। घड़ा वैसे का वैसा ही रहता है, अर्थात् घड़े के नाश हुए बिना ही उसमें पाक हो जाता है। इसे ही न्याय शास्त्र में "पिठरपाक" कहते हैं।
वैशेषिकों का कहना है कि कार्य में जो गुण उत्पन्न होता है, उस पहले उस कार्य के समवायिकारण में उत्पन्न होना चाहिए। इसलिए जब कच्चा घड़ा आग में पकने को दिया जाता है, तब आग सबसे पहले उस घड़े के जितने परमाणु हैं, उन सबको पकाती है और उसमें दूसरा रंग उत्पन्न करती है। फिर क्रमश: वह घड़ा भी पक जाता है और उसका रंग भी बदल जाता है। इस प्रक्रिया के अनुसार जब कुम्हार कच्चे घड़े को आग में पकने के लिए देता है, तब तेज के जोर से उस घड़े का परमाणु पर्यंत नाश हो जाता है और उसके परमाणु अलग अलग हो जाते हैं पश्चात् उनमें रूप बदल जाता है, अर्थात् घड़ा नष्ट हो जाता है और परमाणु के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा रंग बदल जाता है, फिर उस घड़े से लाभ उठानेवालों के अदृष्ट के कारणवश सृष्टि के क्रम से फिर बनकर वह घड़ा तैयार हो जाता है। इस प्रकार उन पक्व परमाणुओं से संसार के समस्त पदार्थ, भौतिक या अभौतिक तेज के कारण पकते रहते हैं। इन वस्तुओं में जितने परिवर्तन होते हैं वे सब इसी पाकज प्रक्रिया (केमिकल ऐक्शन) के कारण होते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह पाक केवल पृथिवी से बनी हुई वस्तुओं में होता है। इसे वैशेषिक "पीलुवाक" कहते हैं।
(6) नैयायिक असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक, प्रकरणसम तथा कालात्ययापदिष्ट ये पाँच हेत्वाभास मानते हैं, किंतु वैशेषिक विरुद्ध, असिद्ध तथा संदिग्ध, ये ही तीन हेत्वाभास मानते हैं।
(7) नैयायिकों के मत में पुण्य से उत्पन्न "स्वप्न" सत्य और पाप से उत्पन्न स्वप्न असत्य होते हैं, किंतु वैशेषिक के मत में सभी स्वप्न असत्य हैं।
(8) नैयायिक लोग शिव के भक्त हैं और वैशेषिक महेश्वर या पशुपति के भक्त हैं। आगम शास्त्र के अनुसार इन देवताओं में परस्पर भेद है।
(9) इनके अतिरिक्त कर्म की स्थिति में, वेगाख्य संस्कार में, सखंडोपाधि में, विभागज विभाग में, द्वित्वसंख्या की उत्पत्ति में, विभुओं के बीच अजसंयोग में, आत्मा के स्वरूप में, अर्थ शब्द के अभिप्राय में, सुकुमारत्व और कर्कशत्व जाति के विचार में, अनुमान संबंधों में, स्मृति के स्वरूप में, आर्ष ज्ञान में तथा पार्थिव शरीर के विभागों में भी परस्पर इन दोनों शास्त्रों में मतभेद हैं।
इस प्रकार के दोनों शास्त्र कतिपय सिद्धांतों में भिन्न-भिन्न मत रखते हुए भी परस्पर संबद्ध हैं। इनके अन्य सिद्धांत परस्पर लागू होते हैं।
महर्षि कणाद ने परमाणु को ही अंतिम तत्व माना। कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात् परमाणु, परमाणु, परमाणु।

Sunday, March 29, 2015

Vaishesika Sutras by Kanada describe Laws of Motion & Concept of Atom

Acharya Kanada, author of Vaishesika Sutra
Acharya Kanada, author of Vaishesika Sutra
Vaisheshika or Vaiśeṣika (Sanskrit: वैशेषिक) is one of the six Hindu schools of philosophy in Ancient Vedic India.
They were originally proposed by the sage Kaṇāda (or Kana-bhuk, literally, atom-eater) around the 2nd century BC.
Vaisheshika espouses a form of atomism and postulates that all objects in the physical universe are reducible to a finite number of atoms.
Vaisheshika is one of the six Hindu schools of philosophy of India. Historically, it has been closely associated with the Hindu school of logic, Nyaya (syllogism, inference).
The philosophers of this school used to debate on various subjects and try to achieve a conclusion.
Acharya Kaṇāda (Sanskrit: कणाद) was a Hindu sage and philosopher who was born in Prabhas Kshetra (near Dwaraka) in Gujarat, India.
He composed his Sutras around 600 BCE.
His primary area of study was Rasavādam, considered to be a type of alchemy. He is said to have believed that all living beings are composed of five elements: water, fire, earth, air, ether.
Vegetables have only water, insects have water and fire, birds have water, fire, earth and air, and Humans, the top of the creation, have ether—the sense of discrimination (time, space, mind) are one.
He theorized that Gurutva (Hindi/Sanskrit for Gravity) was responsible for the falling of objects on the Earth.
Thus, he was the first person to identify and describe gravity (much ahead of Newton) after Prasnopanishad described it around 6000 BC.

Literature of Vaisheshika

The earliest systematic exposition of the Vaisheshika is found in theVaiśeṣika Sūtra of Kaṇāda (or Kaṇabhaksha). This treatise is divided into ten books. The two commentaries on the Vaiśeṣika Sūtra, Rāvaṇabhāṣya and Bhāradvājavṛtti are no more extant.
Praśastapāda’s Padārthadharmasaṁgraha (c. 4th century) is the next important work of this school.
Though commonly known as bhāṣya of Vaiśeṣika Sūtra, this treatise is basically an independent work on the subject.
The next Vaisheshika treatise, Candra’s Daśapadārthaśāstra (648) based on Praśastapāda’s treatise is available only in Chinese translation.
The earliest commentary available on Praśastapāda’s treatise is Vyomaśiva’s Vyomavatī (8th century). The other three commentaries are Śridhara’s Nyāyakandalī (991), Udayana’s Kiranāvali (10th century) and Śrivatsa’s Līlāvatī (11th century). Śivāditya’s Saptapadārthīwhich also belongs to the same period, presents the Nyāya and the Vaiśeṣika principles as a part of one whole. Śaṁkara Miśra’s Upaskāraon Vaiśeṣika Sūtra is also an important work.

3 Vaishesika Sutras proposed 1800 years before Newton’s Three Laws of Motion

  • वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते |
    Translation : Change of motion is due to impressed force.
    (The law stated that an object at rest tends to stay at rest and an object in motion tends to stay in motion with the same speed and in the same direction unless acted upon by an unbalanced force.)
  • वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु |
    Translation : Change of motion is proportional to the impressed force and is in the direction of the force.
  • वेगः संयोगविशेषविरोधी |
    Translation : Action and reaction are equal and opposite.

The Categories or Padārtha

According to the Vaisheshika school, all things which exist, which can be cognised, and which can be named are padārthas (literal meaning: the meaning of a word), the objects of experience. All objects of experience can be classified into six categories, dravya (substance), guṇa (quality), karma (activity), sāmānya (generality), viśeṣa (particularity) and samavāya (inherence). Later Vaiśeṣikas (Śrīdhara, Udayana and Śivāditya) added one more category abhava (non-existence). The first three categories are defined as artha (which can perceived) and they have real objective existence.
The last three categories are defined as budhyapekṣam (product of intellectual discrimination) and they are logical categories.
1.Dravya (substance): The substances are conceived as 9 in number. They are, pṛthvī (earth), ap (water), tejas (fire), vāyu (air), ākaśa (ether), kāla (time), dik (space), ātman (self) and manas (mind). The first five are called bhūtas, the substances having some specific qualities so that they could be perceived by one or the other external senses.
2.Guṇa (quality): The Vaiśeṣika Sūtra mentions 17 guṇas (qualities), to which Praśastapāda added another 7. While a substance is capable of existing independently by itself, a guṇa(quality) cannot exist so. The original 17 guṇas (qualities) are, rūpa (colour), rasa (taste), gandha (smell), sparśa (touch), saṁkhyā (number), parimāṇa (size/dimension/quantity), pṛthaktva (individuality), saṁyoga (conjunction/accompaniments), vibhāga (disjunction), paratva (priority), aparatva (posteriority), buddhi (knowledge), sukha (pleasure), duḥkha (pain), icchā (desire), dveṣa (aversion) and prayatna (effort). To these Praśastapāda added gurutva (heaviness), dravatva (fluidity), sneha (viscosity), dharma (merit), adharma (demerit), śabda (sound) and saṁkāsra (faculty).
3.Karma (activity): The karmas (activities) like guṇas (qualities) have no separate existence, they belong to the substances. But while a quality is a permanent feature of a substance, an activity is a transient one. Ākāśa (ether), kāla (time), dik (space) and ātman (self), though substances, are devoid of karma (activity).
4.Sāmānya (generality): Since there are plurality of substances, there will be relations among them. When a property is found common to many substances, it is called sāmānya.
5.Viśeṣa (particularity): By means of viśeṣa, we are able to perceive substances as different from one another. As the ultimate atoms are innumerable so are the viśeṣas.
6.Samavāya (inherence): Kaṇāda defined samavāya as the relation between the cause and the effect. Praśastapāda defined it as the relationship existing between the substances that are inseparable, standing to one another in the relation of the container and the contained. The relation of samavāya is not perceivable but only inferable from the inseparable connection of the substances.

The atomic theory

An interesting story states that this theory occurred to him while he was walking with food in his hand. As he nibbled at the food in his hand, throwing away the small particles, it occurred to him that he could not divide the food into further parts and thus the idea of a matter which cannot be divided further came into existence. He called that indivisible matter anu, i.e. atom. He also stated that anu can have two states – Absolute rest and a State of motion.
The early Vaiśeṣika texts presented the following syllogism to prove that all objects i.e. the four bhūtas, pṛthvī (earth), ap (water), tejas (fire) and vāyu (air) are made of indivisible paramāṇus (atoms): Assume that the matter is not made of indivisible atoms, and that it is continuous.
Take a stone. One can divide this up into infinitely many pieces (since matter is continuous). Now, the Himalayan mountain range also has infinitely many pieces, so one may build another Himalayan mountain range with the infinite number of pieces that one has. One begins with a stone and ends up with the Himalayas, which is a paradox – so the original assumption that matter is continuous must be wrong, and so all objects must be made up of a finite number of paramāṇus (atoms).
According to the Vaiśeṣika school, the trasareṇu (dust particles visible in the sunbeam coming through a small window hole) are the smallest mahat (perceivable) particles and defined as tryaṇukas (triads). These are made of three parts, each of which are defined as dvyaṇuka (dyad). The dvyaṇukas are conceived as made of two parts, each of which are defined as paramāṇu (atom). The paramāṇus (atoms) are indivisible and eternal, they can neither be created nor destroyed.[13] Each paramāṇu (atom) possesses its own distinct viśeṣa (individuality).
The measure of the partless atoms is known as parimaṇḍala parimāṇa. It is eternal and it cannot generate the measure of any other substance. Its measure is its own absolutely.
Ofcourse, knowledge of Atoms and Molecules was given through Bhagavata Purana and in Rig Veda, where cloning incidents were described.
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