मूर्ति पूजा का विरोध क्यों ? जिस प्रकार मनुष्य का शरीर पञ्चतत्त्व से निर्मित होता है ऐसे ही दारु-धातुमय विग्रह भगवान् का शरीर होता है । मूर्ति पूजा की निन्दा करने वाले वास्तवमें मूर्तिका अर्थ केवल पाषाण ही समझते हैं , किन्तु मूर्ति का अर्थ है भगवान् का आकार या स्वरूप । रंग रूप आकार रहित भगवान् का अर्चन कैसे करें ? इसीलिए मूर्तिमय भगवान् का अर्चन किया जाता है । जैसे माता-पिता गुरुजनोंकी सेवा करना , यद्यपि माता-पिता अस्थि-चर्मसे निर्मित शरीर नहीं हैं , शरीरके अंदर... रहने वाले भगवदंश आत्मा ही हैं तथापि आत्मा की सेवा नही की जा सकती ,शरीरके द्वारा ही माता पिताकी सेवा की जाती है । अस्थि-चर्म निर्मित शरीरके द्वारा माता-पिताकी सेवाकी जाती है फिर भी ये नहीं कहते कि अस्थि-चर्मकी सेवा कर रहे हैं इसी प्रकार भगवान् का अर्चन श्रीविग्रहके द्वारा किया जाता है क्योंकि देव परोक्षप्रिय होते हैं -- "परोक्षप्रिया इव हि देवा: " !(ऐतरेय० १/३/१४) अब यदि कहो कि हम तो केवल यज्ञ किया करते हैं ,मूर्ति पूजा नहीं करते तब तो अज्ञानता ही है सुनिए - मूर्तिके द्वारा भगवान् का अर्चन कैसे करते हैं ? दारु-धातु-मृण्मय श्रीविग्रहकी षोड्शउपचारों द्वारा (धूप-दीप-नैवेद्य आदि) भगवद् अर्चन किया जाता है जिसे आप मूर्ति पूजा कहते हैं अब यज्ञके द्वारा यजन सुनिए - १०८०० इष्टकाओं,मृण्मयसे निर्मित यज्ञकुण्डमें समिधा द्वारा दूध ,दही ,घी ,सोमलता ,यवागू ,भात ,कच्चे चावल ,फल और जल इत्यादि से किया जाता है । अब दोनों ही पूजाओंमें क्या अंतर रहा ? इष्टकाओं-मृण्मय यज्ञकुण्डसे पूजन करना क्या मूर्ति पूजा नहीं है? भगवान् ने सृष्टिके समय यज्ञके रूप में अपनी मूर्तिकी पूजा की स्थापना की थी -- " अथैनमात्मान: प्रतिमामसृजत यद् यज्ञम् ,तस्मादाहु: प्रजापतिर्यज्ञ इत्यात्मनो ह्येनं प्रतिमासृजत !! (शतपथ ब्राह्मण ११/१/८/३) प्रजापति परमात्माने अपनी प्रतिमा (मूर्ति)के रूपमें सर्वप्रथम यज्ञको उतपन्न किया । अतः यज्ञ साक्षाद् भगवान् का स्वरूप हैं ।। निश्चित ही मूर्तिपूजा है ! हिन्दू यज्ञके द्वारा ,श्रीविग्रह के द्वारा सर्वशक्तिमान ईश्वरकी आराधना करता है न कि यज्ञ-मूर्तिकी ।
अन्धन्तम: प्रवशन्ति येऽसंभूतिमुपासते ! ततो भूय ऽ इव ते तमो यऽउ संभूत्या ँ् रताः !!( शुक्ल यजुर्वेद ४०/९) अर्थात्
जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति ) की उपासना करते हैं ,वे घोर अंधकारमें प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्यब्रह्म) में रत हैं ,वे मानो उनसे भी अधिक अंधकारमें प्रवेश करते हैं ।
।" यहाँ श्रुति भगवती सम्भूतिकी(कार्य ब्रह्म -पृथ्वी-पाषाणादि) उपासना करने का फल अंधकारमय बता रही हैं
अब अगला मन्त्र देखिए -
"सम्भूतिं च विनाशं च यस्यद्वेदोभय ँ् सह ! विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते !!( शुक्ल यजुर्वेद ४०/११) अर्थात् -जो असम्भूति और कार्यब्रह्म( पृथ्वी-पाषाणादि) इन दोनोंको साथ साथ अर्थात् अव्यक्त प्रकृति और पृथ्वी-पाषाणादिको ब्रह्मही जानता है,वह कार्यब्रह्म (पृथ्वी-पाषाणादि) की उपासनासे मृत्युको पार करके अर्थात् जन्म-मृत्युके चक्रसे छूटकर असम्भूतिके द्वारा अर्थात् अव्यक्त प्रकृतिकेलय द्वारा अमृत्व प्राप्त कर लेता है ।
अर्थात् जगत् के कारण रूप परब्रह्मको और नाशवान् प्रकृति-शरीर आदि को एक ही जानता है वो मुक्त हो जाता है ।"
ये श्रुति स्पष्ट कहती है - "ईशा वास्यमिद ँ् सर्वं यत्किन्च जगत्यां जगत् ! (शुक्ल यजुर्वेद ४०/१) अर्थात् - इस सृष्टिमें जो कुछ प्रत्यक्ष है ,जड़ अथवा चेतन है तथा प्राणी ,जीव, पर्वत ,समुद्र ,नदियां और भूमि हैं,वे सब परमात्माके द्वारा ही आच्छादित हैं !" जब सब कुछ परमात्माके द्वारा ही आच्छादित है तब प्रकृति-जड़ पाषाण-शरीरादि की उपासना निषेध क्यों होगी ? उसका फल अंधकारमय क्यों होगा ?
अब यदि दयानन्द उपरोक्त मन्त्र ४०/९ में पृथ्वी-पाषाणादिकी पूजाको अंधकारमय ही मानते हैं तब ये वेद मन्त्र भी देखिए -
"परि द्यावापृथिवी सद्यऽइत्वा परि लोकात् परि दिशः परि स्वः ! ऋतस्य तन्तुं विततं विचृत्य तदपश्यवत्तदभत्तदासीत !! (शुक्ल यजुर्वेद ३२/१२)
अर्थात् - जो द्यावापृथ्वी को समस्त लोकों और दिशाओं को ब्रह्म मानते हुए स्वर्ग की परिक्रमा करते हैं तथा यज्ञ-कर्मको अनुष्ठानादि से संपन्न करके ब्रह्मको साक्षाद् रूप से देखते हैं ,वे अज्ञान से छूटकर उसी ब्रह्ममें एकाकार हो जाते हैं !" इस उपरोक्त यजुर्वेदके मन्त्र में पृथ्वी-स्वर्गादि समस्त चराचर जगत् को ब्रह्म मानकर परिक्रमा आदि उपासना करता है और जगत् को ब्रह्म ही मानता है जड़ नहीं वो ब्रह्ममें लीन हो जाता है ये स्पष्ट हो जाता है .........
मूर्ति पूजा प्रतिपादन - सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द सरस्वतीने शुक्ल यजुर्वेदके निम्न मन्त्रसे मूर्ति पूजा का निषेध किया है किन्तु ये बहुत ही भ्रामक है - दयानन्दका मन्त्र भाष्य - "अन्धतम: प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ! ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्या ँ् रताः !! ( शुक्ल यजुर्वेद ४०/९) अर्थात् - जो 'असम्भूति ' अर्थात् अनुत्पन्न प्रकृति कारण की , ब्रह्मके स्थान में उपासना करते हैं ,वे अंधकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागरमें डूबते हैं । और 'सम्भूति' जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्मके स्थान पर करते हैं ,वे अंधकार से भी अधिक अंधकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं !"जबकि इस मन्त्रमें मूर्ति पूजाका कहीं भी विरोध नही है .
अब सही अर्थ देखिए -"अंध मूर्ति पूजा प्रतिपादन । सत्यार्थ प्रकाश एकादश समुल्लास पृष्ठ ३७७-३७८ में स्वामी दयानन्द ने - "न तस्य प्रतिमाऽअस्ति !!(यजुर्वेद ३२/३ अर्थात् - जो सब जगत् में व्यापक है उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा ,परिमाण ,सादृश्य वा मूर्ति नही है !" ऐसा अर्थ करके मूर्ति पूजा का निषेध माना है ।
किन्तु इस मन्त्र का अब सम्यक् अर्थ करते हैं - " न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः । हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हि ँ् सादित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येष: !! (शुक्ल यजुर्वेद ३२/३) अर्थात् - उस परमात्म स्वरूप पुरुष का कोई आकार नहीं है । उसका यशऔर नाम ही महान् है । "हिरण्यगर्भ" ,"यस्मान्न जातः ", और "मा मा हिंसित् " आदि मन्त्रों में उसकी महिमा का वर्णन हुआ है । " इस मन्त्र में कहा गया है यद्यपि उस परमात्मा का कोई आकार-स्वरूप या मूरत नहीं है तथापि उन महान् परमात्माका हिरण्यगर्भ आदि मन्त्रों में वर्णित है अर्थात् वो परमात्मा सृष्टि के आदि में आकार -स्वरूप रहित रहते हुए भी सर्गके समय स्वयं ही हिरण्यगर्भ ,विराटपुरुष ,प्रजापति और संवत्सर के रूप में मूर्तिमान् होता है । "संवत्सरे हि प्रजापतिरजायत । स इदं हिरण्यमाण्डं व्यसृजत् " ! ये विराट पुरुष या हिरण्यगर्भ ही इस परमात्माकी प्रथम मूर्ति है !
"संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वां रात्र्युपासते । सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्योषेण सं सृज " (अथर्ववेद ३/१०/३) अर्थात् - हे रात्रि ! संवत्सर (प्रजापति -परमात्मा ) की प्रतिमा (मूर्ति) जिस तेरी हम उपासना करते हैं ,वह तू प्रतिमा हमारी प्रजाको धान-पुष्टि आदिसे संयुक्त कर " की उक्ति से परमात्मा के साकार स्वरूप होने ,उनकी मूर्तिकी उपासना का प्रतिपादन किया गया है । भगवद्गीता में भी भगवान् कहते हैं - " मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना "(भगवद्गीता ९/४) । इन सब प्रमाणों से सिद्ध है शुक्ल यजुर्वेद का उपर्युक्त मन्त्र "न तस्य प्रतिमाऽअस्ति०"३२/३ में मूर्ति पूजा का निषेध नहीं है..
साभार-: कृष्णानुरागी वरुण