Sunday, November 16, 2014

YUGAS, LOKAS,COSMOS, BHARAT, INDIA- ARTICLE IN HINDI

१. पौराणिक इतिहास भूगोल-(१) कालमान (क) ज्योतिषीय काल-बिहार के प्राचीन नामों को जानने के लिये पुराणों का प्राचीन इतिहास भूगोल समझना पड़ेगा। अभी २ प्रकार से ब्रह्मा का तृतीय दिन चल रहा है। ज्योतिष में १००० युगों का एक कल्प है जो ब्रह्मा का एक दिन है। यहां युग का अर्थ है सूर्य से उसके १००० व्यास दूरी (सहस्राक्ष क्षेत्र) तक के ग्रहों (शनि) का चक्र, अर्थात् १ युग में इनकी पूर्ण परिक्रमायें होती हैं। आधुनिक ज्योतिष में भी पृथ्वी गति का सूक्ष्म विचलन जानने के लिये शनि तक के ही प्रभाव की गणना की जाती है। भागवत स्कन्ध ५ में नेपचून तक के ग्रहों का वर्णन है जिसे १०० कोटि योजन व्यास की चक्राकार पृथ्वी कहा गया है। इसका भीतरी ५० कोटि योजन का भाग लोक = प्रकाशित है, बाहरी अलोक भाग है। इसमें पृथ्वी के चारों तरफ ग्रह-गति से बनने वाले क्षेत्रों को द्वीप कहा गया है जिनके नाम वही हैं जो पृथ्वी के द्वीपों के हैं। पृथ्वीके द्वीप अनियमित आकार के हैं, सौर-पृथ्वी के द्वीप चक्राकार (वलयाकार) हैं। द्वीपों के बीच के भागों को समुद्र कहा गया है। पृथ्वी का गुरुत्व क्षेत्र जम्बूद्वीप, मंगल तक के ठोस ग्रहों का क्षेत्र दधि समुद्र आदि हैं। १००० युगों के समय में प्रकाश जितनी दूर तक जा सकता है वह तप लोक है तथा वह समय (८६४ कोटि वर्ष) ब्रह्मा का दिन रात है। इस दिन से अभी तीसरा दिन चल रहा है अर्थात् १७२८ कोटि वर्ष के २ दिन-रात बीत चुके हैं तथा तीसरे दिन के १४ मन्वन्तरों (मन्वन्तर = ब्रह्माण्ड या आकाश गंगा का अक्षभ्रमण काल) में ६ बीतचुके हैं, ७वें मन्वन्तर के ७१ युगों में २७ बीत चुके हैं तथा २८ वें युग के ४ खण्डों में ३ बीत चुके हैं-सत्य, त्रेता, द्वापर (ये ४३२,००० वर्ष के कलि के ४, ३, २ गुणा हैं)। चतुर्थ पाद युग कलि १७-२-३१०२ ई.पू. से चल रहा है।
(ख) ऐतिहासिक काल-ऐतिहासिक युग चक्र ध्रुवीय जल प्रलय के कारण होता है जो १९२३ के मिलांकोविच सिद्धान्त के अनुसार २१६०० वर्षों का चक्र है। यह २ गतियों का संयुक्त प्रभाव है-१ लाख वर्षों में पृथ्वी की मन्दोच्च गति तथा विपरीत दिशा में २६,००० वर्ष में अयन गति (पृथ्वी अक्ष की शंकु आकार में गति-ब्रह्माण्ड पुराण का ऐतिहासिक मन्वन्तर-स्वायम्भुव मनु से कलि आरम्भ तक )। भारत में मन्दोच्च गति के दीर्घकालिक अंश ३१२,००० वर्ष चक्र को लिया गया है। इसमें २४,००० वर्षों का चक्र होता है, जिसमें १२-१२ हजार वर्षों का अवसर्पिणी (सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रम में) तथा उत्सर्पिणी (विपरीत क्रम में युग खण्ड) भाग हैं। प्रति अवसर्पिणी त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पिणी त्रेता में हिम युग आता है। तृतीय ब्रह्माब्द का अवसर्पिणी वैवस्वत मनु काल से आरम्भ हुआ, जिसके बाद ४८०० वर्ष का सत्य युग, ३६०० वष का त्रेता तथा २४०० वर्ष का द्वापर १७-२-३१०२ ई.पू में समाप्त हुये। अर्थात् वैवस्वत मनु का काल १३९०२ ई.पू. था। अवसर्पिणी कलि १२०० वर्ष बाद १९०२ ई.पू. में समाप्त हुआ। उसके बाद उत्सर्पिणी का कलि ७०२ ई.पू. में, द्वापर १६९९ ई. में पूर्ण हुआ। अभी १९९९ ई. तक उत्सर्पिणी त्रेता की सन्धि थी अभी मुख्य त्रेता चलरहा है। त्रेता को यज्ञ अर्थात् वैज्ञानिक उत्पादन का युग कहा गया है। १७०० ई. से औद्योगिक क्रान्ति आरम्भ हुयी, अभी सूचना विज्ञान का युग चल रहा है। इसी त्रेता में हिमयुग आयेगा। विश्व का ताप बढ़ना तात्कालिक घटना है, दीर्घकालिक परिवर्तन ज्योतिषीय कारणों से ही होगा।
(२) आकाश के लोक-आकाश में सृष्टि के ५ पर्व हैं-१०० अरब ब्रह्माण्डों का स्वयम्भू मण्डल, १०० अरब तारों का हमारा ब्रह्माण्ड, सौरमण्डल, चन्द्रमण्डल (चन्द्रकक्षा का गोल) तथा पृथ्वी। किन्तु लोक ७ हैं-भू (पृथ्वी), भुवः (नेपचून तक के ग्रह) स्वः (सौरमण्डल १५७ कोटि व्यास, अर्थात् पृथ्वी व्यास को ३० बार २ गुणा करने पर), महः (आकाशगंगा की सर्पिल भुजा में सूर्य के चतुर्दिक् भुजा की मोटाई के बराबर गोला जिसके १००० तारों को शेषनाग का १००० सिर कहते हैं), जनः (ब्रह्माण्ड), तपः लोक (दृश्य जगत्) तथा अनन्त सत्य लोक। 
(३) पृथ्वी के तल और द्वीप-इसी के अनुरूप पृथ्वी पर भी ७ तल तथा ७ लोक हैं। उत्तरी गोलार्द्ध का नक्शा (नक्षत्र देख कर बनता है, अतः नक्शा) ४ भागों में बनता था। इसके ४ रंगों को मेरु के ४ पार्श्वों का रंग कहा गया है। ९०-९० अंश देशान्तर के विषुव वृत्त से ध्रुव तक के ४ खण्डों में मुख्य है भारत, पश्चिम में केतुमाल, पूर्व में भद्राश्व, तथा विपरीत दिशा में उत्तर कुरु। इनको पुराणों में भूपद्म के ४ पटल कहा गया है। ब्रह्मा के काल (२९१०२ ई.पू.) में इनके ४ नगर परस्पर ९० अंश देशान्तर दूरी पर थे-पूर्व भारत में इन्द्र की अमरावती, पश्चिम में यम की संयमनी (यमन, अम्मान, सना), पूर्व में वरुण की सुखा तथा विपरीत में चन्द्र की विभावरी। वैवस्वत मनु काल के सन्दर्भ नगर थे, शून्य अंश पर लंका (लंका नष्ट होने पर उसी देशान्तर रेखा पर उज्जैन), पश्चिम में रोमकपत्तन, पूर्व में यमकोटिपत्तन तथा विपरीत दिशा में सिद्धपुर। दक्षिणी गोलार्द्ध में भी इन खण्डों के ठीक दक्षिण ४ भाग थे। अतः पृथ्वी अष्ट-दल कमल थी, अर्थात् ८ समतल नक्शे में पूरी पृथ्वी का मानचित्र होता था। गोल पृथ्वी का समतल नक्शा बनाने पर ध्रुव दिशा में आकार बढ़ता जाता है और ठीक ध्रुव पर अनन्त हो जायेगा। उत्तरी ध्रुव जल भाग में है (आर्यभट आदि) अतः वहां कोई समस्या नहीं है। पर दक्षिणी ध्रुव में २ भूखण्ड हैं-जोड़ा होने के कारण इसे यमल या यम भूमि भी कहते हैं और यम को दक्षिण दिशा का स्वामी कहा गया है। इसका ८ भाग के नक्शे में अनन्त आकार हो जायेगा अतः इसे अनन्त द्वीप (अण्टार्कटिका) कहते थे। ८ नक्शों से बचे भाग के कारण यह शेष है।
भारत भाग में आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोक थे। बाकी ७ खण्ड ७ तल थे-अतल, सुतल, वितल, तलातल, महातल, पाताल, रसातल।
वास्तविक भूखण्डों के हिसाब से ७ द्वीप थे-जम्बू (एसिया), शक (अंग द्वीप, आस्ट्रेलिया), कुश (उत्तर अफ्रीका), शाल्मलि (विषुव के दक्षिण अफ्रीका), प्लक्ष (यूरोप), क्रौञ्च (उत्तर अमेरिका), पुष्कर (दक्षिण अमेरिका)। इनके विभाजक ७ समुद्र हैं। 
(४) धाम-आकाश के ४ धाम हैं-अवम (नीचा) = क्रन्दसी-सौरमण्डल, मध्यम = रोदसी-ब्रह्माण्ड, उत्तम या परम (संयती)-स्वयम्भू मण्डल, परात्पर-सम्पूर्ण जगत् का अव्यक्त मूल। इनके जल हैं-मर, अप् या अम्भ, सलिल (सरिर), रस। इनके ४ समुद्र हैं-विवस्वान्, सरस्वान्, नभस्वान्, परात्पर। इनके आदित्य (आदि = मूल रूप) अभी अन्तरिक्ष (प्रायः खाली स्थान) में दीखते हैं-मित्र, वरुण, अर्यमा, परात्पर ब्रह्म। इसी के अनुरूप पृथ्वी के ४ समुद्र गौ के ४ स्तनों की तरह हैं जो विभिन्न उत्पाद देते हैं-स्थल मण्डल, जल मण्डल, जीव मण्डल, वायुमण्डल। इनको आजकल ग्रीक में लिथो, हाइड्रो, बायो और ऐटमो-स्फियर कहा जाता है। शंकराचार्य ने ४८३ ई.पू. में इसके अनुरूप ४ धाम बनाये थे-पुरी, शृङ्गेरी, द्वारका, बदरी। ७०० ई. में गोरखनाथ ने भी ४ तान्त्रिक धाम बनाये-कामाख्या, याजपुर (ओडिशा), पूर्णा (महाराष्ट्र), जालन्धर (पंजाब) जिसके निकट गुरुगोविन्द सिंह जी ने अमृतसर बनाया।
(५) भारत के लोक-भारत नक्शे के ७ लोक हैं-भू (विन्ध्य से दक्षिण), भुवः (विन्ध्य-हिमालय के बीच), स्वः (त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम, हिमालय), महः (चीन के लोगों का महान् = हान नाम था), जनः (मंगोलिया, अरबी में मुकुल = पितर), तपः (स्टेपीज, साइबेरिया), सत्य (ध्रुव वृत) इन्द्र के ३ लोक थे-भारत, चीन, रूस। आकाश में विष्णु के ३ पद हैं-१०० व्यास तक ताप क्षेत्र, १००० व्यास तक तेज और उसके बाद प्रकाश (जहां तक ब्रह्माण्ड से अधिक है) क्षेत्र। विष्णु का परमपद ब्रह्माण्ड है जो सूर्य किरणों की सीमा कही जाती है अर्थात् उतनी दूरी पर सूर्य विन्दुमात्र दीखेगा, उसके बाद ब्रह्माण्ड ही विन्दु जैसा दीखेगा। पृथ्वी पर सूर्य की गति विषुव से उत्तर कर्क रेखा तक है, यह उत्तर में प्रथम पद है। विषुव वृत्त तक इसके २ ही पद पूरे होते हैं, तीसरा ध्रुव-वृत्त अर्थात् बलि के सिर पर है। 
२. भारत के नाम-(१) भारत-इन्द्र के ३ लोकों में भारत का प्रमुख अग्रि (अग्रणी) होने के कारण अग्नि कहा जाता था। इसी को लोकभाषा में अग्रसेन कहते हैं। प्रायः १० युग (३६०० वर्षों) तक इन्द्र का काल था जिसमें १४ प्रमुख इन्द्रों ने प्रायः १००-१०० वर्ष शासन किया। इसी प्रकार अग्रि = अग्नि भी कई थे। अन्न उत्पादन द्वारा भारत का अग्नि पूरे विश्व का भरण करता था, अतः इसे भरत कहते थे। देवयुग के बाद ३ भरत और थे-ऋषभ पुत्र भरत (प्रायः ९५०० ई.पू.), दुष्यन्त पुत्र भरत (७५०० ई.पू.) तथा राम के भाई भरत जिन्होंने १४ वर्ष (४४०८-४३९४ ई.पू.) शासन सम्भाला था।
(२) अजनाभ-विश्व सभ्यता के केन्द्र रूप में इसे अजनाभ वर्ष कहते थे। इसके शासक को जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र (स्वयम्भू मनु पुत्र प्रियव्रत की सन्तान) का पुत्र नाभि कहा गया है।
(३) भौगोलिक खण्ड के रूप में इसे हिमवत वर्ष कहा गया है क्योंकि यह जम्बू द्वीप में हिमालय से दक्षिण समुद्र तक का भाग है। अलबरूनी ने इसे हिमयार देश कहा है (प्राचीन देशों के कैलेण्डर में उज्जैन के विक्रमादित्य को हिमयार का राजा कहा है जिसने मक्का मन्दिर की मरम्मत कराई थी)
(४) इन्दु-आकाश में सृष्टि विन्दु से हुयी, उसका पुरुष-प्रकृति रूप में २ विसर्ग हुआ-जिसका चिह्न २ विन्दु हैं। विसर्ग का व्यक्त रूप २ विन्दुओं के मिलन से बना ’ह’ है। इसी प्रकार भारत की आत्मा उत्तरी खण्ड हिमालय में है जिसका केन्द्र कैलास विन्दु है। यह ३ विटप (वृक्ष, जल ग्रहण क्षेत्र) का केन्द्र है-विष्णु विटप से सिन्धु, शिव विटप (शिव जटा) से गंगा) तथा ब्रह्म विटप से ब्रह्मपुत्र। इनको मिलाकर त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम है। इनका विसर्ग २ समुद्रों में होता है-सिन्धु का सिन्धु समुद्र (अरब सागर) तथा गंगा-ब्रह्मपुत्र का गंगा-सागर (बंगाल की खाड़ी) में होता है। हुएनसांग ने लिखा है कि ३ कारणों से भारत को इन्दु कहते हैं-(क) उत्तर से देखने पर अर्द्ध-चन्द्राकार हिमालय भारत की सीमा है, चन्द्र या उसका कटा भाग = इन्दु। (ख) हिमालय चन्द्र जैसा ठण्ढा है। (ग) जैसे चन्द्र पूरे विश्व को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार भारत पूरे विश्व को ज्ञान का प्रकाश देता है। ग्रीक लोग इन्दु का उच्चारण इण्डे करते थे जिससे इण्डिया शब्द बना है।
(५) हिन्दुस्थान-ज्ञान केन्द्र के रूप में इन्दु और हिन्दु दोनों शब्द हैं-हीनं दूषयति = हिन्दु। १८ ई. में उज्जैन के विक्रमादित्य के मरने के बाद उनका राज्य १८ खण्डों में भंट गया और चीन, तातार, तुर्क, खुरज (कुर्द) बाह्लीक (बल्ख) और रोमन आदि शक जातियां। उनको ७८ ई. में विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने पराजित कर सिन्धु नदी को भारत की पश्चिमी सीमा निर्धारित की। उसके बाद सिन्धुस्थान या हिन्दुस्थान नाम अधिक प्रचलित हुआ। देवयुग में भी सिधु से पूर्व वियतनाम तक इन्द्र का भाग था, उनके सहयोगी थे-अफगानिस्तान-किर्गिज के मरुत्, इरान मे मित्र और अरब के वरुण तथा यमन के यम।
(६) कुमारिका-अरब से वियतनाम तक के भारत के ९ प्राकृतिक खण्ड थे, जिनमें केन्द्रीय खण्ड को कुमारिका कहते थे। दक्षिण समुद्र की तरफ से देखने पर यह अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। शक्ति (स्त्री) का मूल रूप कुमारी होने के कारण इसे कुमारिका खण्ड कहते हैं। इसके दक्षिण का महासागर भी कुमारिका खण्ड ही है जिसका उल्लेख तमिल महाकाव्य शिलप्पाधिकारम् में है। आज भी इसे हिन्द महासागर ही कहते हैं।
(७) लोकपाल संस्था-२९१०२ ई.पू. में ब्रह्मा ने ८ लोकपाल बनाये थे। यह उनके स्थान पुष्कर (उज्जैन से १२ अंश पश्चिम बुखारा) से ८ दिशाओं में थे। यहां से पूर्व उत्तर में (चीन, जापान) ऊपर से नीचे, दक्षिण पश्चिम (भारत) में बायें से दाहिने तथा पश्चिम में दाहिने से बांये लिखते थे जो आज भी चल रहा है। बाद के ब्रह्मा स्वायम्भुव मनु की राजधानी अयोध्या थी, और लोकपालों का निर्धारण भारत के केन्द्र से हुआ। पूर्व से दाहिनी तरफ बढ़ने पर ८ दिशाओं (कोण दिशा सहित) के लोकपाल हैं-इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, मरुत्, कुबेर, ईश। इनके नाम पर ही कोण दिशाओं के नाम हैं-अग्नि, नैर्ऋत्य, वायव्य, ईशान। अतः बिहार से वियतनाम और इण्डोनेसिया तक इन्द्र के वैदिक शब्द आज भी प्रचलित हैं। इनमें ओड़िशा में विष्णु और जगन्नाथ सम्बन्धी, काशी (भोजपुरी) में शिव, मिथिला में शक्ति, गया (मगध) में विष्णु के शब्द हैं। शिव-शक्ति (हर) तथा विष्णु (हरि) क्षेत्र तथा इनकी भाषाओं की सीमा आज भी हरिहर-क्षेत्र है। इन्द्र को अच्युत-च्युत कहते थे, अतः आज भी असम में राजा को चुतिया (च्युत) कहते हैं। इनका नाग क्षेत्र चुतिया-नागपुर था जो अंग्रेजी माध्यम से चुटिया तथा छोटा-नागपुर हो गया। ऐरावत और ईशान सम्बन्धी शब्द असम से थाइलैण्ड तक, अग्नि सम्बन्धी शब्द वियतनाम. इण्डोनेसिया में हैं। दक्षिण भारत में भी भाषा क्षेत्रों की सीमा कर्णाटक का हरिहर क्षेत्र है। उत्तर में गणेश की मराठी, उत्तर पूर्व के वराह क्षेत्र में तेलुगु, पूर्व में कार्त्तिकेय की सुब्रह्मण्य लिपि तमिल, कर्णाटक में शारदा की कन्नड़, तथा पश्चिम में हरिहर-पुत्र की मलयालम।
३. बिहार नाम का मूल-सामान्यतः कहा जाता है कि यहां बौद्ध विहार अधिक थे अतः इसका नाम बिहार पड़ा। यह स्पष्ट रूप से गलत है और केवल बौद्ध भक्ति में लिखा गया है। जब सिद्धार्थ बुद्ध (१८८७-१९०७ ई.पू.) या गौतम बुद्ध (५६३ ई.पू जन्म) जीवित थे तब भी इसे बिहार नहीं, मगध कहते थे। बौद्ध विहार केवल बिहार में ही नहीं, भारत के सभी भागों में थे। मुख्यतः कश्मीर में अशोक के समकालीन गोनन्द वंशी अशोक के समय सबसे अधिक बौद्ध विहार बने थे जिसमें मध्य एसिया के बौद्धों का प्रवेश होने से उन्होंने कश्मीर का राज्य नष्ट-भ्रष्ट कर दिया (राजतरंगिणी, तरंग १)। यह भारत के प्राकृतिक विभाजन के कारण नाम है। आज भी हिमाचल प्रदेश में पहाड़ की ऊपरी भूमि (अधित्यका) को खनेर और घाटी की समतल भूमि (उपत्यका) को बहाल या बिहाल कहते हैं। इसका मूल शब्द है बहल (बह्+क्लच्, नलोपश्च) = प्रचुर, बली, महान्। यथा-असावस्याः स्पर्शो वपुषि बहलश्चन्दनरसः (उत्तररामचरित१/३८), प्रहारैरुद्रच्छ्द्दहनबहलोद्गारगुरुभि (भर्तृहरि, शृङ्गार शतक, ३६)। बहल एक प्रकार की ईख का भी नाम है। खनेर का मूल शब्द है-खण्डल-भूखण्ड, या उसका पालन कर्त्ता। आखण्डल -सभी भूखण्डों का स्वामी इन्द्र। भारत में विन्ध्य और हिमालय के बीच खेती का मुख्य क्षेत्र था। उसमें भी बिहार भाग सबसे चौड़ा और अधिक नदियों (विशेषकर उत्तर बिहार) से सिञ्चित था। अधिक विस्तृत समतल भाग के अर्थ में इसे बहल या विहार (रमणीय) कहते हैं। सबसे अधिक कृषि का क्षेत्र मिथिला था जहां के राजा जनक भी हल चलाते थे। खेती में मुख्यतः घास जाति के धान और गेहूं रोपे जाते हैं, जो एक प्रकार के दर्भ हैं। दर्भ क्षेत्र को दरभंगा कहते हैं। भूमि से उत्पन्न सम्पत्ति सीता है, इसका एक भाग राजा रूप में इन्द्र को मिलता है। अतः यह शक्ति क्षेत्र हुआ। दर्भंगा के विशेष शब्द वही होंगे जो अथर्ववेद के दर्भ तथा कृषि सूक्तों में हैं। यहां केवल खेती है, कोई वन नहीं है। इसके विपरीत विदर्भ में दर्भ बिल्कुल नहीं है, केवल वन हैं। इसका पश्चिमी भाग रीगा ऋग्वेद का केन्द्र था जहां से ज्ञान संस्थायें शुरु हुयीं। ज्ञान का केन्द्र काशी शिव का स्थान हुआ। कर्क रेखा पर गया विष्णुपद तीर्थ या विष्णु खेत्र हुआ। दरभंगा के चारों तरफ अरण्य क्षेत्र हैं-अरण्य (आरा-आयरन देवी), सारण (अरण्य सहित) चम्पारण, पूर्ण-अरण्य (पूर्णिया)। गंगा के दक्षिण छोटे आकार के वृक्ष हैं अतः मगध को कीकट भी कहते थे। कीकट का अर्थ सामान्यतः बबूल करते हैं, पर यह किसी भी छोटे आकार के बृक्ष के लिये प्रयुक्त होता है जिसे आजकल कोकाठ कहते हैं। 
उसके दक्षिण में पर्वतीय क्षेत्र को नागपुर (पर्वतीय नगर) कहते थे। इन्द्र का नागपुर होने से इसे चुतिया (अच्युत-च्युत) नागपुर कहते थे। आज भी रांची में चुतिया मोड़ है। घने जंगल का क्षेत्र झारखण्ड है। इनके मूल संस्कृत शब्द हैं-झाटः (झट् + णिच+ अच्)-घना जंगल, निकुञ्ज, कान्तार। झुण्टः =झाड़ी। झिण्टी = एक प्रकार की झाड़ी। झट संहतौ-केश का जूड़ा, झोंटा, गाली झांट।
गंगा नदी पर्वतीय क्षेत्र से निकलने पर कई धारायें मिल कर नदी बनती है। जहां से मुख्य धारा शुरु होती है उस गांगेय भाग के शासक गंगा पुत्र भीष्म थे। जहां से उसका डेल्टा भाग आरम्भ होता है अर्थात् धारा का विभाजन होता है वह राधा है। वहां का शासक राधा-नन्दन कर्ण था। यह क्षेत्र फरक्का से पहले है। 
४. राजनीतिक भाग-(१) मल्ल-गण्डक और राप्ती गंगा के बीच।
(२) विदेह-गंगा के उत्तर गण्डक अओर कोसी नदी के बीच, हिमालय के दक्षिण। राजधानी मिथिला वैशाली से ५६ किमी. उत्तर-पश्चिम।
(३) मगध-सोन नद के पूर्व, गंगा के दक्षिण, मुंगेर के पश्चिम, हजारीबाग से उत्तर। प्राचीन काल में सोन-गंगा संगम पर पटना था। आज भी राचीन सोन के पश्चिम पटना जिले का भाग भोजपुरी भाषी है। नदी की धारा बदल गयी पर भाषा क्षेत्र नहीं बदला। राजधानी राजगीर (राजगृह)।
(४) काशी-यह प्रयाग में गंगा यमुना संगम से गंगा सोन संगम तक था, दक्षिण में विन्ध्य से हिमालय तक। इसके पश्चिम कोसल (अयोध्या इसी आकार का महा जनपद था। इसका पूर्वी भाग अभी बिहार में है पुराना शाहाबाद अभी ४ भागों में है भोजपुर, बक्सर, रोहतास, भभुआ।
(५) अंग-मोकामा से पूर्व मन्दारगिरि से पश्चिम, गंगा के दक्षिण, राजमहल के उत्तर। राजधानी चम्पा (मुंगेर के निकट, भागलपुर) । मन्दार पर्वत समुद्र मन्थन अर्थात् झारखण्ड में देव और अफ्रीका के असुरों द्वारा सम्मिलित खनन का केन्द्र था। इसके अधीक्षक वासुकि नाग थे, जिनका स्थन वासुकिनाथ है। कर्ण यहां का राजा था।
(६) पुण्ड्र-मिथिला से पूर्व, वर्तमान सहर्षा और पूर्णिया (कोसी प्रमण्डल) तथा उत्तर बंगाल का सिलीगुड़ी। कोसी (कौशिकी) से दुआर (कूचबिहार) तक। राजधानी महास्थान बोग्रा से १० किमी. उत्तर।
पर्वतीय भाग-(१) मुद्गार्क-राजमहल का पूर्वोत्तर भाग, सन्थाल परगना का पूर्व भाग, भागलपुर और दक्षिण मुंगेर (मुख्यतः अंग के भाग)। मुद्गगिरि = मुंगेर।
(२) अन्तर्गिरि-राजमहल से हजारीबाग तक। 
(३) बहिर्गिरि-हजारीबाग से दामोदर घाटी तक।
(४) करूष-विन्ध्य का पूर्वोत्तर भाग, कैमूर पर्वत का उत्तरी भाग, केन (कर्मनाशा) से पश्चिम। 
(५) मालवा-मध्य और उत्तरी कर्मनाशा (केन नदी)।
५. विशिष्ट वैदिक शब्द-(१) भोजपुरी-यह प्राचीन काशी राज्य था। काशी अव्यक्त शिव का स्थान था जिसके चतुर्दिक् अग्नि रूप में शिव के ८ रूप प्रकट हुये (८ वसु), इनके स्थान अग्नि-ग्राम (अगियांव) हैं। मूल काशी के चारों तरफ ८ अन्य पुरी थी, कुल ९ पुरियों के लोग नवपुरिया कहलाते थे जो सरयूपारीण (सरयू के पूर्व) ब्राह्मणों का अन्य नाम है। ज्ञान परम्परा के आदिनाथ शिव और यज्ञ भूमि के कारण शिव और यज्ञ से सम्बन्धित शब्द भोजपुरी में अधिक हैं। प्रायः ५० विशिष्ट वैदिक शब्दों में कुछ उदाहरण दिये जाए हैं-
(क) रवा-यज्ञ द्वारा जरूरी चीजों का उत्पादन होता है। जो व्यक्ती उपयोगी काम में सक्षम है उसमें महादेव का यज्ञ वृषभ रव कर रहा है, अतः वह महादेव जैसापूजनीय है। सबसे पहले पुरु ने प्रयाग में यज्ञ-संस्था बनायी थी (विष्णु पुराण, ४/६/३-४)। अतः उनको सम्मान के लिये पुरुरवा कहा गया। अतः प्रयाग से सोन-संगम तक आज भी सम्मान के लिये रवा कहते हैं। जो आदमी किसी काम लायक नहीं है, वह अन-रवा = अनेरिया (बेकार) है।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्। (गीता ३/१०)
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महोदेवो मर्त्यां आविवेश॥ (ऋक् ४/५८/३)
पुरुरवा बहुधा रोरूयते (यास्क का निरुक्त १०/४६-४७)। 
महे यत्त्वा पुरूरवो रणायावर्धयन्दस्यु- हत्याय देवाः। (ऋक् १०/९५/७)
(ख) बाटे (वर्त्तते)-केवल भोजपुरी में वर्त्तते (बाटे) का प्रयोग होता है, बाकी भारत में अस्ति। पश्चिम में अस्ति से ’आहे, है’ हो गया। पूर्व में अस्ति का अछि हो गया। अंग्रेजी में अस्ति से इस्ट (इज) हुआ। इसका कारण है कि जैसे आकाश में हिरण्यगभ से ५ महाभूत और जीवन का विकास हुआ, उसी प्रकार पृथ्वी पर ज्ञान का केन्द्र भारत था और भारत की राजधानी दिवोदास काल में काशी थी। इसका प्रतीक पूजा में कलश होता है जो ५ महाभूत रूप में पूर्ण विश्व है। जीवन आरम्भ रूप में आम के पल्लव हैं तथा हिरण्यगर्भ के प्रतीक रूप में स्वर्ण (या ताम्र) पैसा डालकर इसका मन्त्र पढ़ते हैं-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋक् १०/१२१/१, वाजसनेयी यजुर्वेद १३/४, २३/१, अथर्व ४/२/७)
हिरण्य गर्भ क्षेत्र के रूप में काशी है (काश = दीप्ति), परिधि से बाहर निकलने पर प्रकाश। इसकी पूर्व सीमा पर सोन नद का नाम हिरण्यबाहु। यहां समवर्तत हुआ था अतः वर्तते का प्रयोग, भूतों के पति शिव का केन्द्रीय आम्नाय।
(ग) भोजपुरी-किसी स्थान में अन्न आदि के उत्पादन द्वारा पालन करने वाला भोज है। पूरे भारत पर शासन करने वाला सम्राट् है, संचार बाधा दूर करने वाला चक्रवर्त्ती है। उसके ऊपर कई देशों में प्रभुत्व वाला इन्द्र तथा महाद्वीप पर प्रभुत्व वाला महेन्द्र है। विश्व प्रभुत्व वाला विराट् है, ज्ञान का प्रभाव ब्रह्मा, बल का प्रभाव विष्णु। यहां का दिवोदास भोज्य राजा था, अतः यह भोजपुर था। महाभारत में भी यादवों के ५ गणों में एक भोज है, कंस को भी भोजराज कहा गया है। यह सदा से अन्न से सम्पन्न था। 
भागवत पुराण, स्कन्ध १०, अध्याय १-श्लाघ्नीय गुणः शूरैर्भवान्भोजयशस्करः॥३७॥
उग्रसेनं च पितरं यदु-भोजान्धकाधिपम्॥६९॥
इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।
विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्रतिरन्तआयुः॥ (ऋक्३ /५३/७)
नभो जामम्रुर्नन्यर्थमीयुर्नरिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजाः।
इदं यद्विश्वं भुवनं स्वश्चैतत्सर्वं दक्षिणैभ्योददाति॥ (ऋक् १०/१०७/८)
(इसी भाव में-आरा जिला घर बा कौन बात के डर बा?)
(घ) कठोपनिषद्-अन्न क्षेत्र होने से यहां के ऋषि को वाजश्रवा कहा है (वाज = अन्न, बल, घोड़ा), श्रवा = उत्पादन। वे दान में बूढ़ी गायें दे रहे थे जिसका उनके पुत्र नचिकेता ने विरोध किया। चिकेत = स्पष्ट, जिसे स्पष्ट ज्ञान नहीं है और उसकी खोज में लगा है वह नचिकेता है। या ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में सम्बन्ध जानने वाला। वह ज्ञान के लिये वैवस्वत यम के पास संयमनी पुरी (यमन, अम्मान, मृत सागर, राजधानी सना) गये थे। मनुष्य के २ लक्ष्य हैं प्रेय (तात्कालिक लाभ) और श्रेय (स्थायी लाभ)। भारत में श्रेय आदर्श है अतः सम्मान के लिये श्री कहते हैं। पश्चिम एसिया में प्रेय आदर्श था अतः वहां पूज्य को पीर कहते हैं जो हमारा प्रेय दे सके। नचिकेता पीर से मिलने गया था जो उसे सोना-चान्दी आदि देना चाहते थे, अतः उसके स्थान का नाम पीरो हुआ। वहां की मुद्रा दीनार थी (दीनता दूर करने के लिये), भारत में इस शब्द का प्रयोग मुस्लिम शासन में भी नहीं हुआ है, पर यहां से नचिकेता पीर के पास गया था, अतः यहां का मुख्य बाजार दिनारा कहलाता है। प्रेय को छोड़ कर श्रेय मार्ग लेना धीर के लिये ही सम्भव है, जिसे भोजपुरी में कहते हैं ’संपरता’ जो कठोपनिषद् से आया है-श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतत्, तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः॥ (कठोपनिषद् १/२/२)
(२) मैथिली-इसमें भी प्रायः ५० विशिष्ट वैदिक शब्द हैं जिनमें खोज की जरूरत है। कृषि सूक्त से सम्बन्धित शब्द इसमें हैं-
(क) अहां के-शक्ति रूप में देवनागरी के ५० वर्ण ही मातृका हैं क्योंकि इनसे वाङ्मय रूप विश्व उत्पन्न होता है। मातृ-पूजा में इन्हीं वर्णों का न्यास शरीर के विभिन्न विन्दुओं पर किया जात है। असे ह तक शरीर है, उसे जानने वाला आत्मा क्षेत्रज्ञ है (गीत अध्याय १३), अतः क्ष, त्र, ज्ञ-ये ३ अक्षर बाद में जोड़ते हैं। मातृका रूप शक्ति का स्वरूप होने के कारण मनुष्य को सम्मान के लिये अहं (अहां) कहते हैं अथात् अ से ह तक मातृका।
(ख) सबसे अधिक खेती का विकास मिथिला में हुआ, अतः वहां के शासक को जनक (उत्पादक, पिता) कहते थे। वह स्वयं भी खेती करते थे। वहां केवल खेती थी, वन नहीं था। खेती में सभी वृक्ष घास या दर्भ हैं, अतः इस क्षेत्र को दर्भङ्गा कहते हैं। भूमि से उत्पादित वस्तु सीता है, अतः जनक की पुत्री को भूमि-सुता तथा सीता कहा गया। इसका भाग लेकर इन्द्र (राजा) प्रजा का पालन तथा रक्षण करता है। इसका विस्तृत वर्णन अथर्ववेद के कृषि (३/१७) तथा दर्भ (१९/२८-३०,३२-३३) सूक्तों में है-
अथर्व (३/१७)-इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरमुत्तरां समाम्॥४॥
शुनं सुफाला वितुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनुयन्तु वाहान्।
शुनासीरा (इन्द्र) हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै॥५॥
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भवः॥८॥
घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमतामरुद्भिः।
सा नः सीता पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत्पिन्वमाना॥९॥
अथर्व (१९/२८)-घर्म (घाम = धूप) इवाभि तपन्दर्भ द्विषतो नितपन्मणे।
अथर्व (१९/२८)-तीक्ष्णो राजा विषासही रक्षोहा विश्व चर्षणिः॥४॥
= राजा रक्षा तथा चर्षण (चास = खेती) करता है।
(ग) झा-शक्ति के ९ रूपों की दुर्गा रूप में पूजा होती है। नव दुर्गा पूजक को झा कहते हैं क्योंकि झ नवम व्यञ्जन वर्ण है।
(३) मगही के शब्द विष्णु सूक्त में अंगिका के शब्द सूर्य सूक्त में होने चाहिए। इनकी खोज बाकी है।
(४) खनिज सम्बन्धी शब्द स्वभावतः वहीं होंगे जहां खनिज मिलते हैं। बलि ने युद्ध के डर से वामन विष्णु को इन्द्र की त्रिलोकी लौटा दी थी। पर कई असुर सन्तुष्ट नहीं थे और युद्ध चलते रहे। कूर्म अवतार विष्णु ने समझाया कि यदि उत्पादन नहीं हो तो युद्ध से कुछ लूट नहीं सकते अतः देव-असुर दोनों खनिज सम्पत्ति के दोहन के लिये राजी हो गये (१६०० ई.पू.)। असुर भूमि के भीतर खोदने में कुशल थे अतः खान के नीचे वे गये जिसको वासुकि का गर्म मुख कहा गया है। देव लोग विरल धातुओं के निष्कासन में कुशल थे अतः जिम्बाबवे का सोना (जाम्बूनद स्वर्ण) तथा मेक्सिको की चान्दी (माक्षिकः = चान्दी) निकालने के लिये देवता गये। बाद में इसी असुर इलाके के यवनों ने भारत पर आक्रमण कर राजा बाहु को मार दिया (मेगास्थनीज के अनुसार ६७७७ ई.पू.)। प्रायः १५ वर्ष बाद सगर ने आक्रमणकारी बाकस (डायोनिसस) को भगाया और यवनों को ग्रीस जा पड़ा जिसके बाद उसका नाम यूनान हुआ। अतः आज भी खनिज कर्म वाले असुरों की कई उपाधि वही हैं जो ग्रीक भाषा में खनिजों के नाम हैं-
(क) मुण्डा-मुण्ड लौह खनिज (पिण्ड) है और उसका चूर्ण रूप मुर (मुर्रम) है। पश्चिम में नरकासुर की राजधानी लोहे से घिरी थी अतः उसे मुर कहते थे। वाल्मीकि रामायण (किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ३९) के अनुसार यहीं पर विष्णु का सुदर्शन चक्र बना था। आज भी यहां के लोगों को मूर ही कहते हैं। लोहे की खान में काम करने वालों को मुण्डा कहते हैं। मुण्ड भाग में अथर्व वेद की शाखा मुण्डक थी जिसे पढ़ने वाले ब्राह्मणों की उपाधि भी मुण्ड है। ) 
(ख) हंसदा-हंस-पद का अर्थ पारद का चूर्ण या सिन्दूर है। पारद के शोधन में लगे व्यक्ति या खनिज से मिट्टी आदि साफ करने वाले हंसदा हैं।
(ग) खालको-ग्रीक में खालको का अर्थ ताम्बा है। आज भी ताम्बा का मुख्य अयस्क खालको (चालको) पाइराइट कहलाता है।
(घ) ओराम-ग्रीक में औरम का अर्थ सोना है।
(ङ) कर्कटा-ज्यामिति में चित्र बनाने के कम्पास को कर्कट कहते थे। इसका नक्शा (नक्षत्र देख कर बनता है) बनाने में प्रयोग है, अतः नकशा बना कर कहां खनिज मिल सकता है उसका निर्धारण करने वाले को करकटा कहते थे। पूरे झारखण्ड प्रदेश को ही कर्क-खण्ड कहते थे (महाभारत, ३/२५५/७)। कर्क रेखा इसकी उत्तरी सीमा पर है, पाकिस्तान के करांची का नाम भी इसी कारण है।
(च) किस्कू-कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यह वजन की एक माप है। भरद्वाज के वैमानिक रहस्य में यह ताप की इकाई है। यह् उसी प्रकार है जैसे आधुनिक विज्ञान में ताप की इकाई मात्रा की इकाई से सम्बन्धित है (१ ग्राम जल ताप १० सेल्सिअस बढ़ाने के लिये आवश्यक ताप कैलोरी है)। लोहा बनाने के लिये धमन भट्टी को भी किस्कू कहते थे, तथा इसमें काम करने वाले भी किस्कू हुए।
(छ) टोप्पो-टोपाज रत्न निकालनेवाले। 
(ज) सिंकू-टिन को ग्रीक में स्टैनम तथा उसके भस्म को स्टैनिक कहते हैं।
(झ) मिंज-मीन सदा जल में रहती है। अयस्क धोकर साफ करनेवाले को मीन (मिंज) कहते थे-दोनों का अर्थ मछली है।
(ञ) कण्डूलना-ऊपर दिखाया गया है कि पत्थर से सोना खोदकर निकालने वाले कण्डूलना हैं। उस से धातु निकालने वाले ओराम हैं।
(ट) हेम्ब्रम-संस्कृत में हेम का अर्थ है सोना, विशेषकर उससे बने गहने। हिम के विशेषण रूप में हेम या हैम का अर्थ बर्फ़ भी है। हेमसार तूतिया है। किसी भी सुनहरे रंग की चीज को हेम या हैम कहते हैं। सिन्दूर भी हैम है, इसकी मूल धातु को ग्रीक में हाईग्रेरिअम कहते हैं जो सम्भवतः हेम्ब्रम का मूल है।
(ठ) एक्का या कच्छप-दोनों का अर्थ कछुआ है। वैसे तो पूरे खनिज क्षेत्र का ही आकार कछुए जैसा है, जिसके कारण समुद्र मन्थन का आधार कूर्म कहा गया। पर खान के भीतर गुफा को बचाने के लिये ऊपर आधार दिया जाता है, नहीं तो मिट्टी गिरने से वह बन्द हो जायेगा। खान गुफा की दीवाल तथा छत बनाने वाले एक्का या कच्छप हैं।

COMBODIA'S PAST HINDU HISTORY

Pre-history of Cambodia starts with the legendary Khambujaraja, a Brahman king of India, who had come to the region and faced adversity from a beautiful lady on the mountain. After a brief fight between them, a truce was drawn and the beautiful lady, Mero by name, married Khambuja. The country they jointly ruled was called Khambujadesa and their descendants were called the Khmer people. Khambujadesa later became Kampuchea and then Cambodia. The original language spoken was Mon-Khmer. Later in the 6th century the ‘Mon’ people moved further west to Thailand and the Khmer remained in current day Cambodia.
Indian influence in the region began in the first century C. E. They traded goods with Khmer by way of sea, when spice and silk trade had flourished. Both Indians and Chinese exerted their influences on the local people but Indian culture took a firm foothold, perhaps through the efforts of Brahmin priests. The rulers of the time had a suffix of ‘Varman’ to their names, similar to the Pallava kings of Kanchipuram. Whilst the Cholas of Tanjavur in India eventually defeated the Pallava Varmans in the 8th century, the Khmer kingdoms flourished well into the 14th century. Though all the rulers of Cambodia bore the name ‘Varman,’ they did not necessarily belong to the same dynasty. At various periods in their history, the rulers and usurpers came from Siam (Thailand) or Champa (Vietnam) as well as Khambujadesa (Cambodia or Kampuchea).

Sanskrit and Russian: Ancient kinship

Sanskrit and Russian: Ancient kinshipThe striking similarities in Sanskrit and Russian indicate that during some period of history, the speakers of the two languages lived close together.
When was the last time you had a shot of vodka? Well, next time you have one, remember that this Russian word has its origins in the Vedic Sanskrit word for water – udaka.
The classical Sanskrit word for water is jal and is familiar to most Indians. But the fact that the Russian word for water voda is closer to the Vedic Sanskrit word points to the close – and ancient – kinship between the two languages.
пустым не оставлять!!While it is commonly known that both languages belong to the Indo-European family of languages, most people believe the relation between Russian and Sanskrit is as distant as that between Persian and Sanskrit or Latin and Sanskrit. Linguist and author W.R. Rishi writes in his book ‘India & Russia: Linguistic & Cultural Affinity’ that Russian and Sanskrit share a deeper connection.
According to Rishi, the relation between these two languages is very close and correspondence between these two languages is so minute that it cannot be attributed to mere chance. “The facts…lead us to conclude that during some period of history the speakers of Sanskrit and Russian lived close together.”
Rishi points to another feature of the Indo-European languages – the power to form compounds of various words. Such compounds have been carried on from Indo-European to Greek, Sanskrit and Old Church Slavonic.
Kharma BhoomiThe origin of the Russian word gorod (Old Slavonic grad) meaning ‘city’ can also be traced. In ancient Russia and in India the cities were built to serve as forts for protection and defence against aggression from an enemy. The corresponding word in Hindi is gadh which means ‘fort’. In modern Russian the suffix grad and in modern Hindi the suffix gadh are used to form names of cities: such as Leningrad (the city of Lenin), Peterograd (the city of Peter) and Bahadurgarh (the city of the brave).
The two languages have two broad similarities. One, Russian is the only European language that shares a strong common grammatical base with Sanskrit.
пустым не оставлять!!Secondly, both Russian and Sanskrit are pleasing to the ear. The very name ‘Sanskrit’ means carefully constructed, systematically formed, polished and refined. Colonial era linguist William Jones wrote: “Sanskrit language is of a wonder structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either.”
Admirers of Russian are equally liberal with their praise. In a lecture at London University in March 1937, philologist and linguist N.B. Japson said: “It is nevertheless a matter of common experience that a person completely ignorant of Russian, who for the first time hears the language spoken by a native, will voluntarily exclaim: “Why, how melodious Russian sounds.” Novelist Ivan Turgenev wrote: “But it is impossible to believe that a language was not given to a great people.”
Linguist S. Zharnikova writes in Science & Life: “There are many Russian names and words in Russian the origin of which can easily be traced with the help of the Sanskrit language. For example, it is linguistically possible to find traces of the name of the Russian river Volga. Herodotus calls this river by the name of Oaros which can be best explained with the help of the purely Sanskrit word var meaning water.”
What explains the similarities? Vedic Sanskrit was spoken as late as 300 BCE but its antiquity may stretch back thousands of years from that date. Russian may either be the result of ancient Indians taking their language and culture from the banks of the Saraswati river to the banks of the Ob. The discovery of Shiva statues in Central Asia and Russia points to the spread of Hindu culture far beyond the Indian heartland.
There is the other conjecture that Vedic Sanskrit was introduced to India by blond Aryans who originated from southern Russia. This idea is popular with Europeans, including Russians, despite clear evidence that the current belief in an Aryan invasion of India was the result of a body of lies developed by English and German scholars.
While DNA evidence is gradually chipping away at the notion that Aryans brought civilisation to India, scholars such as Shrikant Talageri have analysed the Vedic texts and showed how the older books talk about places in eastern India whereas the later ones provide descriptions of the geography of northwestern India. This can only mean one thing: the ancient Indians moved into Central Asia and perhaps then on to Europe.
While it may take decades to settle the issue one way or the other, it is a fact that Vedic Hindu civilisation was spread over a great area. According to Bulgarian linguist Vladimir Georgiev, geographical names are the most important source for determining how a group of people acquire their ethnicity. This can originate through a process of self-identification or it could be the result of outside identification.
Georgiev says the most stable – or longstanding – names are that of rivers. “But in order to preserve the names it is necessary to maintain the continuity of the population, transmitting these names from generation to generation. Otherwise, new people may come and give it their own name,” he says.
Georgiev illustrates that in 1927 a detachment of geologists "discovered" the highest mountain in the Urals. The mountain was called Narada by the local population, and interestingly the ancient Indian epics describe the great sage Narada as living in the north. But since it was the 10thanniversary of the October Revolution, the geologists decided to mark the event and rename the mountain as Narodnoy – or People. And that’s what it is now called in all geographic references and on all maps.
Luckily, many other words remain unchanged. Russian scientist and academician AI Sobolewski provides a list of Russian water bodies with Sanskrit names. In his article ‘The Names of the Rivers and Lakes of the Russian North’, he gives the names of the following rivers and lakes: Vaja (from vaja - strength), Valga (from Valgu - simple), Ira (a refreshing drink), Karak (karaka - water jar), Cala (black), Lala (lal - play), Padma (lotus), Punk (silt), Sagara (ocean), Sarah (sara - juice), Sukhona (suhana - easy) and Harina (goose).
The uncanny similarities between Sanskrit and Russian clearly indicate a close kinship between the two nations in the distant past. That could explain why Indians and Russians get along so easily compared with any other nation. For, both nations are sisters under the skin. As the science of language and DNA studies progress, more secrets will tumble out, providing us a better picture of the past.

NO MERE CHANCE

 Russian  Sanskrit  English 
 Naš Nas Ours
 Svoi Sva One's own 
 Ty Tvam Thou
 Tebya Tva Thou
 Brov Bhuru Brow
 Dever Dever Brother in law 
 Govorit Gavati  To speak
 Grabit'    Grabhati To seize, loot
 Griva  Griva Neck
 Krov Kravya Blood
 Myaso Mansa Flesh
 Zhizn' Jivana Life
 Nosorog Nasasringa  Rhinoceros
 Okhotnik  Akhetika Hunter
 Nebo Nabhas Sky
 Veter Vata Wind
 Gora Giri Mountain
 Bog Bhaga God
 Pochitaniye  Pujan Worship
 Noch Nakta Night
 Ogon Agni Fire
 Dver Dvara Door
 Soyuz Samyoga Union
RUSSIANS WERE ALWAYS WONDER ABOUT INDIA

MAGNETIC COMPASS CALLED MATSYA YANTRA WAS FIRST USED BY HINDUS

WHEN WAS FIRST MAGNETIC COMPASS USED ..? 
Photo: JEWELS OF BHARATAM ....SERIES [TM]

Q. WHEN WAS FIRST MAGNETIC COMPASS USED ..? 

A. MAGNETIC COMPASS WAS FIRST USED BY HINDUS .... CALLED MATSYA YANTRA ... The magnetic compass was first used in India around 1800 BCE, for navigational purposes at sea, and was known as ‘Matsya yantra’ (which roughly translates to fish machine), because of the placement of a metallic piece shaped into a fish in a cup of oil .
The magnetic compass was first used in India around 1800 BCE, for navigational purposes at sea, and was known as ‘Matsya yantra’ (which roughly translates to fish machine), because of the placement of a metallic piece shaped into a fish in a cup of oil .

The work "Merchants Treasure" written at Cairo by Baylak al Kiljaki mentions the magnetic needle as being in use in the Indian Ocean.The route that Fa-hien , the celebrated Chinese monk, took to return home after his stay in India (412-413) is fully described by him. Leaving Tramralipti, the Orissa port, he took fourteen days to reach Sri Lanka. From there he embarked for Java and called at Nicobars (Nakka-varam), the island of the naked. From Nicobar the ship passed through the Straits of Malacca into the Pacific. Oceanic travel was therefore well advanced in the fifth century and Indian mariners not merely crossed the Bay of Bengal at its widest point, but sailed far out into the Pacific

GANGA RIVER is not just a river of water?


National Geographic and NPR did a study few years ago :
Photo: The story of Ganga.

The river Ganga resided in the sky ( the milky way ) and was called Akashganga. On earth, king Bhagirath wanted to revive his dead sons by washing away their sins. He prayed to Lord Bharma, who in turn asked Ganga to come to the earth (Prithvi). However, if the great river would have fallen from the sky directly, it would have destroyed the land, so Lord Shiva, stood on Mt Meru in the Himalayas and allowed it to fall from the sky to his matted locks of hair and then he slowly let her flow out of the Himalayas, onto the land and into the ocean.

My grandmother always said - Ganga is not just a river, she is a mother, a goddess and much much more. But I always wondered, what makes the Ganga so special ? It will probably take a life time to understand the mysticism of the scared river,but this article helped me begin my quest.

National Geographic and NPR did a study few years ago :

"Hollick speaks with DS Bhargava, a retired professor of hydrology, who has spent a lifetime performing experiments up and down Ganges in the plains of India. In most rivers, Bhargava says, organic material usually exhausts a river's available oxygen and starts putrefying. But in the Ganges, an unknown substance, or "X factor" that Indians refer to as a "disinfectant," acts on organic materials and bacteria and kills them. Bhargava says that the Ganges' self-purifying quality leads to oxygen levels 25 times higher than any other river in the world."

http://www.npr.org/templates/story/story.php?storyId=17134270

How have we managed to pollute something so sacred is beyond me. But I really do hope we are able to clean it and bring it back to its pristine form.

This soul stirring song by Bhupen Hazarika is more relevant today than ever before.
https://www.youtube.com/watch?v=Foa2jv0sIcw

~ Poonam Patil Kalra
"Hollick speaks with DS Bhargava, a retired professor of hydrology, who has spent a lifetime performing experiments up and down Ganges in the plains of India. In most rivers, Bhargava says, organic material usually exhausts a river's available oxygen and starts putrefying. But in the Ganges, an unknown substance, or "X factor" that Indians refer to as a "disinfectant," acts on organic materials and bacteria and kills them. Bhargava says that the Ganges' self-purifying quality leads to oxygen levels 25 times higher than any other river in the world."Hollick's search for a scientific explanation for the X factor leads him to a spiritual leader at an ashram and a biologist in Kanpur. But his best answer for the Ganges' mysterious substance comes from Jay Ramachandran, a molecular biologist and entrepreneur in Bangalore.
NPR.ORG

Friday, November 14, 2014

CHIDAMBARAM TEMPLE SECRET- CENTER OF MAGNETIC FIELD OF EARTH

 
SPIRITUALITY SCIENCE - ESSENCE AND EXISTENCE - CHIDAMBARA RAHASYAM: LORD SHIVA'S ESSENCE IN THIS IMAGE IS DESCRIBED AS "ARDHANARISHWARA", HALF-MALE AND HALF-FEMALE, A PERFECT UNION OF MATTER, ENERGY, AND THE ENERGY CONTROLLER.

SPIRITUALITY SCIENCE – ESSENCE AND EXISTENCE – CHIDAMBARA RAHASYAM: LORD SHIVA’S ESSENCE IN THIS IMAGE IS DESCRIBED AS “ARDHANARISHWARA”, HALF-MALE AND HALF-FEMALE, A PERFECT UNION OF MATTER, ENERGY, AND THE ENERGY CONTROLLER.

SPIRITUALITY SCIENCE - ESSENCE AND EXISTENCE: CHIDAMBARA RAHASYAM - THE GREAT MYSTERY OF CHIDAMBARAM. LORD NATARAJA DESTROYS MAN'S IGNORANCE TO RELEASE MAN FROM THE INFLUENCE OF COSMIC ILLUSION.

SPIRITUALITY SCIENCE – ESSENCE AND EXISTENCE: CHIDAMBARA RAHASYAM – THE GREAT MYSTERY OF CHIDAMBARAM. LORD NATARAJA DESTROYS MAN’S IGNORANCE TO RELEASE MAN FROM THE INFLUENCE OF COSMIC ILLUSION.


Photo: Chidambara Rahasyam (Secret ).

After 8 years of R & D, Western scientists have proved that at Lord Nataraja 's big toe is the Centre Point of World 's Magnetic Equator.
Our ancient Tamil Scholar Thirumoolar has proved this Five thousand years ago! His treatise
Thirumandiram is a wonderful Scientific guide for the whole world.
To understand his studies, it may need a 100 years for us.
Chidambaram temple embodies the following characteristics :

1) This temple is located at the Center Point of world 's Magnetic Equator.

2) Of the "Pancha bootha" i.e. 5 temples, Chidambaram denotes the Skies. Kalahasthi denotes Wind. Kanchi Ekambareswar denotes land. All these 3 temples are located in a straight line at 79 degrees 41 minutes Longitude. This can be verified using Google. An amazing fact & astronomical miracle !
 Of the other two temples, Tiruvanaikkaval is located at around 3 degrees to the south and exactly 1 degree to the west of the northern tip of this divine axis, while Tiruvannamalai is around midway (1.5 degree to the south and 0.5 degree to the west).

3) Chidambaram temple is based on the Human Body having 9 Entrances denoting 9 Entrances or Openings of the body.

4) Temple roof is made of 21600 gold sheets which denotes the 21600 breaths taken by a human being every day (15 x 60 x 24 = 21600)

5) These 21600 gold sheets are fixed on the Gopuram using 72000 gold nails which denote the total no. of Nadis (Nerves) in the human body. These transfer energy to certain body parts that are invisible.

6) Thirumoolar states that man represents the shape of Shivalingam, which represents Chidambaram which represents Sadashivam which represents HIS dance !

7) "Ponnambalam " is placed slightly tilted towards the left. This represents our Heart. To reach this, we need to climb 5 steps called "Panchatshara padi "
"Si, Va, Ya, Na, Ma " are the 5 Panchatshara mantras.
There are 4 pillars holding the Kanagasabha representing the 4 Vedas.

8) Ponnambalam has 28 pillars denoting the 28 "Ahamas "as well as the 28 methods to worship Lord Shiva. These 28 pillars support 64 +64 Roof Beams which denote the 64 Arts. The cross beams represent the Blood Vessels running across the Human body.

9) 9 Kalasas on the Golden Roof represent the 9 types of Sakthi or Energies.
The 6 pillars at the Artha Mantapa represent the 6 types of Sashtras.
The 18 pillars in the adjacant Mantapa represents 18 Puranams.

10) The dance of Lord Nataraja is described as Cosmic Dance by Western Scientists.
Whatever Science is propounding now has been stated by Sanatan Dharma (Hinduism) thousands of years ago !  #HDL


SPIRITUALITY SCIENCE - ESSENCE AND EXISTENCE: IN BOTH CHRISTIAN AND INDIAN TRADITIONS, EARTH IS THOUGHT TO BE THE CENTER OF THE UNIVERSE. IN INDIA, CHIDAMBARAM IS THE CENTER OF THE UNIVERSE. THE PLACE IS VIEWED AS THE CENTRE OF GEOMAGNETIC EQUATOR OF PLANET EARTH.

SPIRITUALITY SCIENCE – ESSENCE AND EXISTENCE: IN BOTH CHRISTIAN AND INDIAN TRADITIONS, EARTH IS THOUGHT TO BE THE CENTER OF THE UNIVERSE. IN INDIA, CHIDAMBARAM IS THE CENTER OF THE UNIVERSE. THE PLACE IS VIEWED AS THE CENTRE OF GEOMAGNETIC EQUATOR OF PLANET EARTH. THE GREEN HORIZONTAL LINE REPRESENTS THE GEOMAGNETIC EQUATOR.


After 8 years of R & D, Western scientists have proved that at Lord Nataraja 's big toe is the Centre Point of World 's Magnetic Equator. 


Our ancient Tamil Scholar Thirumoolar has proved this Five thousand

 years ago! His treatise
THIRUMANDIRAM is a wonderful Scientific guide for the whole world. LINK TO DOWNLOAD

To understand his studies, it may need a 100 years for us.

Chidambaram, in Southern India’s state of Tamil Nadu, is also known as Thillai, since the place was originally a forest of the thillai shrubs. It is an important pilgrim center, a major shrine of Lord Shiva and as the famous Nataraja Temple. In fact, Chidambaram offers a combination of the three aspects of Shiva worship – the form Lord Nataraja (dance), the form and the formlessness (linga) and the formless omnipresence.The temple has influenced worship, architecture, sculpture and performance art for over two millennium. Now, that is an old temple.

Approaching the temple gateway.
The ancient temple is located in the center of the town and covers 40 acres with four seven-story gopurams ( those huge gateways facing North, South East and West) each with around fifty stone sculptures. There are also five sabhas or courts. The presiding deity of the temple is formless, represented by air, one of the five elements of the universe.
The temple is dedicated to Lord Nataraja, and is unique as it one of the rare temples where Shiva is represented by an idol rather than the customary lingam. (I’d been introduced to lingams earlier, they are black phallic looking statues.) This temple also has exquisite carvings of Bharathanatya dance postures, the Classical Dance of Tamil Nadu. At Chidambaram, the dancer dominates, not the linga.

Close-up of dance poses on the tower.
Temple dancer
The eastern tower of the temple rises to a height of 134 feet with 108 Bharathanatyam dance poses as well as on Western tower. The Northern tower rises to a height of 140 feet and is the tallest. This temple is also noted for its Gold Plated roof that adorns the sanctum sanctorum, or called the kanakasabha. Non-Hindus are not allowed inside the sanctum sanctorum.
 The temple as it stands is mainly from the 12th and 13th centuries, with later additions in similar style. It was believed to have been originally constructed during the early Chola period (900’s AD).

Ruins
Close-up of Stairway ruins.

Chidambaram temple embodies the following characteristics :

1) This temple is located at the Center Point of world 's Magnetic Equator.

2) Of the "Pancha bootha" i.e. 5 temples, Chidambaram denotes the Skies. Kalahasthi denotes Wind. Kanchi Ekambareswar denotes land. All these 3 temples are located in a straight line at 79 degrees 41 minutes Longitude. This can be verified using Google. An amazing fact & astronomical miracle !

3) Chidambaram temple is based on the Human Body having 9 Entrances denoting 9 Entrances or Openings of the body.

4) Temple roof is made of 21600 gold sheets which denotes the 21600 breaths taken by a human being every day (15 x 60 x 24 = 21600)

5) These 21600 gold sheets are fixed on the Gopuram using 72000 gold nails which denote the total no. of Nadis (Nerves) in the human body. These transfer energy to certain body parts that are invisible.

6) Thirumoolar states that man represents the shape of Shivalingam, which represents Chidambaram which represents Sadashivam which represents HIS dance !

7) "Ponnambalam " is placed slightly tilted towards the left. This represents our Heart. To reach this, we need to climb 5 steps called "Panchatshara padi "
"Si, Va, Ya, Na, Ma " are the 5 Panchatshara mantras.


There are 4 pillars holding the Kanagasabha representing the 4 Vedas.

8) Ponnambalam has 28 pillars denoting the 28 "Ahamas "as well as the 28 methods to worship Lord Shiva. These 28 pillars support 64 +64 Roof Beams which denote the 64 Arts. The cross beams represent the Blood Vessels running across the Human body.

9) 9 Kalasas on the Golden Roof represent the 9 types of Sakthi or Energies.

The 6 pillars at the Artha Mantapa represent the 6 types of Sashtras.

The 18 pillars in the adjacant Mantapa represents 18 Puranams.

10) The dance of Lord Nataraja is described as Cosmic Dance by Western Scientists.

Whatever Science is propounding now has been stated by Hinduism thousands of years ago 

 Greatness Of Temple:
Lord Shiva is in three forms in Chidambaram, as visible idol form, formless as Akasha or space and form and formless as a Spatika Linga.
What is Chidambara Rahasyam – secret:  There is small entrance near Lord Sabanayaka in the Chit Saba.  The screen is removed and an arati is offered.  There is nothing in a form inside.  But there hangs a golden Vilwa garland without a Murthi.  The secret is that Lord is here as Akasha which has no beginning or an end.  This can be understood only by experience.  Of the Panchabhoodha Sthals, Chidambaram belongs to Akasha.
Chit + Ambaram= Chidambaram.  Chit means wisdom.  Ambaram means broad open space not measurable.  “We have nothing with us” is the lesson from this philosophy.
The reputation of Chidambaram is still greater, because it is here that the hymns of three great Saivite Saints were discovered.  They sang thousands of hymns in many Shiva Sthals they visited.  Where were they for the use of the devotees?  Tirunarayur Nambiandar Nambi and king Tirumurai Kanda Chozhan fell at the feet of Lord Polla Pillayar – Vinayaka to guide them in the matter.  With the blessings of Lord Vinayaka, they came to know that all these great spiritual literatures with the signatures of the respective authors are hidden in this temple.  They rushed to Chidambaram and worshipped the authors with respectful festivals.  They found the palm leaves covered by anthill and mostly consumed by insects.  Yet they picked up the available full leaves and saved them.  All these invaluable spiritual literatures would have been totally lost but for the painstaking and devout labour of Nambiandar Nambigal and Tirumurai Kanda Chozhan.
Chidambaram Lord Nataraja probably is the first social reformer.  Nandanar, a dalit farm worker was a staunch Shiva devotee.  He desired to have the darshan of Lord but could not secure a holiday from his upper caste boss who said that as a low born he was not entitled for the privilege.  Nandanar did not lose hope.  Naalai Pohalam – Let me go tomorrow – was his hope.  After many tomorrows, he finally reached Chidambaram but could not enter the temple due to his community problem.  He tried to have the glimpse of Lord, but Nandhi the bull vehicle of Lord Shiva blocked the view.  Lord asked Nandhi to move and enabled Nandanar to have his darshan.  Nandanar attained salvation here and merged with Lord to the shock and surprise of the upper class.
It is said that the four Saivite Saints entered the temple through the four entrances of the temple, Manickavasagar through the east, Gnanasambandar from south, Appar from west and Sundarar from the north.  Appar-Tirunavukkarasar did his Angapradakshina in the car strees (Ratha Veedhi) of Chidambaram.
Saint Manickavasagar cured the dumb daughter of the Buddhist king of Lanka with the blessings of Lord in the temple.  There are five Sabhas in the temple – Chittrambalam, Ponnambalam, Perambalam, Niruddha Sabha and Rajatha Sabha.  The shrines of Lord Shiva and Lord Vishnu are so structured that the devotee can have twin darshan from one spot in the temple.  This is a temple where Brahmma, Vishnu and Rudra grace the devotees together.
Saint Arunagirinathar had praised Lord Muruga of this temple in ten of his Tirupugazh hymns.
Many believe that Lord Nataraja is the presiding deity of this temple.  The presiding deity is Adhimoola Nathar in the Linga form.  Sages Patanjali and Vyakrapada wished that people of this earth too should have the chance to view and enjoy the great dance of Lord Shiva performed at Mount Kailash.  They came to earth and sat in penance on Adhimoolanathar for the purpose.  Responding to their selfless penance for the common people, Lord Shiva along with Tri Sahasra Muniswaras – 3000 sages came to this place and granted His dance darshan in Thai month (January-February) on Poosam Star day at 12.00 a.m.  These 3000 Muniswaras then came to known as Thillai Moovayiravar.
Chidambaram is a holy place that ensures total salvation to the souls.  For salvation, one should have his/her birth at Tiruvarur or live in Kanchi or think of Tiruvannamalai or die in Kasi.  If one worships Lords Tirumoolanathar and Nataraja at Chidambaram at least once in life time, salvation is reserved for the soul.  Despite strong opposition to Nandanar to enter the temple due to community reasons, he entered the temple with all honours and merged with the Lord. His bhakti-devotion was too deep and true that transcended all blockades of caste discriminations.
Every one in the world, irrespective of race, colour, country, language, religion throng he temple for Lord Nataraja darshan and also participate in pulling the car-rath.
Lord Brahmma organized a yajna and invited the 3000 Muniswaras to join in the pujas.  They simply replied that no great soulful gain could be achieved  by attending the yajna than the darshan of Nataraja at Thillai Chidambaram.  Lord advised them to go and attend the yajna and promised to appear there at the end of the yajna.  That form of His appearance in the Brahmma Loka is praised as Rathna Sabapathy.  This idol is under the Nataraja idol.  Every day, between 10.00 a.m and 11.00 a.m. Arati is shown to Lord Rathna Sabapathi, both at front and back.
There is a similarity in the design of Nataraja shrine and the human body, it is said.  The 21,600 golden tiles engraved with the Na Ma Shi Va Ya mantra represent the number of times one breathes each day.  The 72,000 nails used in the Ponnambalam represent the number of nerves of the human body.  The 9 entrances represent the nine conveniences in the body activating our movements.  Five steps to Ponnambalam represent the five letters of Na Ma Shi Va Ya Mantra.  Wooden supports numbering 64 represent 64 arts, 96 windows the 96 philosophies, the pillars the 4 Vedas, 6 Sastras and Panchaboodas.
Sri Chakra installed by Acharya Adi Sankara is in the Ambica shrine. The Arthajama puja in the temple has its own significance when, it is believed that all other Gods assemble here for worship.  Great Saivite poet Sekkizhar released His magnum Opus Periapuranam in this temple.  Saint Arunagiriar had praised Lord Muruga of this temple in his Tirupugazh hymns.
  Temple History:
Sage Vasishta, revered as leader of Rishis had a relative Madyandinar by name.  He had a son named Maadyandinar (the first name is short in sound, the next longer – spelling differs).  Sage Vasishta advised that the boy should worship the Swayambulinga in Thillai Vanam forests for gaining complete spiritual wisdom.  Son Maadyandinar reached this place.  He was sad that he lost his puja time in picking up flowers after sunrise and these flowers were not pure as the honey in the same are taken away by the bees.  He appealed to Lord Shiva saying that he was unable to pick the flowers in darkness due to lack of light and the flowers become unfit if picked after sunrise.
Lord granted him hands and legs as that of a tiger to climb the tree and a bright vision to the eyes functioning well even in utter darkness.  Lord also said that he would be known henceforth as Vyakrapada as had the legs as a tiger.  Vyakrapada was too happy with the boon and name and continued his worship in Thillai.

Special Features:
 http://www.bu.edu/cism/cismdx/ref/Labs/2005_AFWA_ShortCourse/Lab03/refs/EarthMagneticField.pdf







Miracle Based: Lord Shiva is swayambumurthi in the temple. 
http://www-gpsg.mit.edu/12.201_12.501/BOOK/chapter3.pdf
chidambaramna.pdf
Thillai Nataraja Kovil (or Temple, in English) situated in Chidambaram in Tamil Nadu is dedicated to Lord Shiva, who is worshiped in the form of Nataraja in dancing posture. The Presiding Deity of the temple is Thirumoolanathar (Lord Shiva) and the Goddess of the temple is Umayambikai (Goddess Parvathi).The unique feature of the temple is the bejeweled image of Nataraja. Lord Shiva is depicted as the Lord of dance radiating universal power. It is one of the temples where Shiva is represented as an anthropomorphic idol, rather than a Lingam. The worship of Lord Shiva in the form of Lingam is associated with the five elements water, fire, wind, earth and ether. Lord Shiva is worshiped in the form of Murthi (idol) in Chidambaram and is considered as one of the Pancha Bootha Sthalas.The dance stage of the temple is called as Chittrambalam and the holy tree is considered as the Thillai (Exocoeria agallocha) tree. The holy water source of the temple is Sivagangai and the hymns of the temple is Thevaram, sung by Sri Manickavachagar.
Location:
Thillai Nataraja Kovil is located in the town Chidambaram in Cuddalore district in the state Tamil Nadu, India. It is situated 78 km south to Pondicherry and 250 km from Chennai, the capital of Tamil Nadu. It is situated on the main railway route between Chennai and Trichy about halfway between these two cities.
The place derived its name from the surrounding Thillai forest. These trees are not seen in Chidambaram now but can be seen at Pichavaram, east of Chidambaram in the backwaters. The temple is one of the pancha bootha sthalas where God is worshiped in one of his manifestations – Sky or Aagayam. Other Pancha Bootha sthalas are Ekambareswarar temple at Kanchipuram (God is worshiped as Earth), Jambukeswarar temple at Thiruvanaikaval, in Tiruchirapalli (God is worshiped as Water), Annamalaiyar Temple at Tiruvannamalai (God representing Fire) and Kalahasti temple at Srikalahasthi (where the God is worshiped as Wind).
History:
Thillai Nataraja Kovil is considered as the primary temple for all the Saivites. The term “Kovil” itself refers to this temple for Saivites, whereas “Kovil” refers to Srirangam temple for Vaishnavites.
The early structure of the temple was constructed and maintained by Perumtaccan of the respected clan of Vishwakarmas. The golden roof of the Chitambalam was laid by the Chola king, Parantaka I. In those flourishing times, kings Rajaraja Chola I and Kulothunga Chola I made significant donations to the temple. Gold and wealth to the temple were donated by Kundavai II, the daughter of Rajaraja Chola while Vikrama Chola made donations for the conduct of the daily rituals. The temple has been renovated several times since the reign of Pallavas and Cholas. Several parts of the temple were re-built by Aragalur Udaya Iraratevan Ponparappinan, in 1213 AD.
Donations to the temple were made later by various kings during various periods of time, including the Maharaja of Pudukottai, Sethupathy and the British. The emerald jewel donated by Sethupathy still adorns the deity.
Architecture:
The place where the temple stands is the claimed center of the earth’s magnetic equator. This shows the tremendous engineering, geographical and astrological knowledge of the ancient architecturers.
The temple has nine gateways among which four of them have gopurams in the East, West, North and South. The eastern gopuram/pagoda has all the 108 dance postures of Bharathanatiyam. The south gopuram Sokkaseeyan Thirunilai Ezhugopuram was constructed by Pandya king. This is evident from the sculpted fishes (flag of Pandya king) in the ceiling. The smallest gopuram is the western gopuram that was constructed in 1150; but there is no evidence available to know the construction of this gopuram. However, there are sculptures depicting the Goddess fighting with buffalo-demon. The North Gopuram was constructed around 1300 AD with the brick portion constructed by the Vijayanagara king Krishnadevaraya in the 16th century. The East Gopuram, was claimed to have been constructed by the Pallava King, Koperunsingan II.
Roof laid with 21,600 golden tiles with the word SIVAYANAMA inscribed on them.
Roof laid with 21,600 golden tiles with the word SIVAYANAMA inscribed on them.
The roof of Ponnambalam is held by a set of 64 beams representing the 64 forms of art. It is also held by several cross beams representing the infinite blood vessels. The roof has been laid with 21,600 golden tiles with the word SIVAYANAMA inscribed on them representing 21,600 breaths, which represents the number of breaths taken in a 24 hour period.. The golden tiles are fixed using 72,000 golden nails that represents the number of nadis existing in the human body. The roof is topped by a set of 9 sacred pots or kalasas, representing the 9 forms of energy.
The temple contains five sabhas – Kanaka Sabha, Chit Sabha, Nritya Sabha, Raja Sabha and Deva Sabha.
The main deity, Lord Shiva is enshrined in Chit Sabha, with black screen covering behind Akasa Lingam.
The Kanaka Sabha is located in front of Chit Sabha. The daily rituals are conducted here.
Nritya Sabha or Natya sabha – It is the hall, where Lord Shiva is said to have danced along with Goddess Kali (an incarnation with ferocious energy) to prove his Supremacy.
Raja Sabha or 1000 pillared hall – It represents the yogic chakra of 1000-petalled lotus.
Deva Sabhai – The hall houses pancha moorthis (five idols) of Lord Ganesha, Lord Muruga, Lord Somaskanda, Lord’s consort Sivananda nayaki and Lord Chandikeswarar.
There is also a Govindaraja shrine dedicated to Lord Vishnu and it is one of the 108 holy temples of Lord Vishnu.
The Chidambaram temple is surrounded by several water bodies in and around the temple complex. The name of the connected tanks are Sivaganga tank, Paramanandha koobham, Kuyya theertham, Pulimadu, Vyagrapatha Theertham, Anantha Theertham, Nagaseri Tank, Brahma Theertham, Shivapiyai Tank and Thiruparkadal.
Legends:
The story of Chidambaram starts with the legend of Lord Shiva moving to Thillai Vanam (Thillai – tree; Vanam means forest). There were a group of Rishis or sages in this forest believing that they can control the Supreme Power through mantras (chants), rituals and magical spells. To refute, Lord Shiva disguises as a mendicant and Lord Vishnu disguises as Mohini, the consort of the mendicant and tests the fidelity of the wives of few sages who were proud of their chastity.
Being a smart and beautiful mendicant, Lord Shiva enchants the wives of the sages. Enraged by this, the sages performs pooja and invoke serpents on Lord Shiva. He in-turn captures all the snakes and adorns them as ornaments around his matted locks, neck and waist. Then, the sages invokes a ferocious tiger from the holy fire and target it on the divine couple. Lord Shiva uses his nail to tear the skin of the tiger and wears it around his waist. After facing the defeat twice, the sages invokes a powerful demon – Muyalakan – a symbol of complete arrogance and ignorance. The Lord wearing on a gentle smile, steps on the demons back and makes him immovable. This is the point where he starts his Anandha Thandavam – an eternal blissful dance, and discloses who they really are. The sages surrender themselves and admit that Supremacy cannot be controlled by any other power.
Dikshithars:
Thillai Nataraja Kovil is being maintained by the endogamous group of Shaivite Brahmins called Dikshithars, who also work as priests in the temple. It is said that these people were brought from Mt. Kailash by Saint Patanjali specifically for performing daily rituals in the temple. There were 3000 Dikshithars initially. Upon the request of Lord Brahma for performing pooja (ritual function), they made a Vedic sacrifice in heaven. After returning back from pooja, there were only 2999 Dikshithars. As they were wondering, they heard an oracle saying that the 3000th Dikshithar was Lord Shiva himself.
Popularity:
The Anandha Thandava posture of Lord Nataraja (Lord Shiva in the Cosmic Dance) is one of the postures recognized all over the world. This celestial dance posture tells us how Bharathanatiyam, an ancient form of Tamil Nadu dance, should be performed.
The demon under Lord Nataraja’s feet signifies that ignorance is under his feet. The Fire in his hands signifies Him as the destroyer of all evil. His raised hand signifies that He is the savior of life. The ring at His back indicates the cosmos. The drum in His hand signifies the birth of life.
It is believed that there is a secret message conveyed through the embossed figure near the shrine of Shiva in Chidambaram temple. It is believed that both Lord Shiva and his consort Parvathi are living here and they are not viewable to the naked eye.
The Chidambara Rahasyam (Secret of Chidambaram) is hidden behind the curtains present at the right side of Lord Nataraja sanctum. Worship or darshan is possible only when the priests open the curtain for pooja, acquiring Godliness. Behind the curtain, there are two golden leaves as from the vilva maram (Aegle Marmelos tree), signifying the presence of Lord Shiva and his consort Goddess Parvathi whose physical form is believed to be viewable by the priests.
The real meaning of the phrase Chidambara Rahasyam lies behind the curtain, which means that a person could know the secret of himself only when he removes the curtain of “Maya”. It is said that one can never reveal the secret until he removes the screen of Maya from one’s mind, To Realise Onself.
The Chidambara Rahasyam also tells us another truth that relates to the period of Moses. It is said that according to the God’s commandments, Moses constructed a Garba Graha but did not place any idol and covered it with a screen. This implies that God should need not only be worshiped with any idol as there is only one religion on the earth.
Getting There:
Chidambaram is a bustling, modern city now well connected by road, railways and air.
The nearest airports present are at Tiruchirapalli (Trichy) and Chennai.
The city is located on the Chennai-Trichy mainline of Southern Railway. There are many trains connecting the town with other major cities of Tamil Nadu.
Frequent bus services are also available from Chidambaram to various states like Andhra Pradesh, Karnataka, Pondicherry and various parts of Tamil Nadu. Non-stop bus services and express bus services are also available from here.